Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lakshminarayan Shah
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 48
________________ फलस्वरूप पैदा हुए थे। ऋषभदेव बूब प्रमाप्रिय और शास्त्र विधानोंकोमवय सजकाज चलाते थे। दुखणे में छहोंने बामप्रस्थानमनाया या स्नकी कई रानियाथीं। १४१५, एकदिनीसम्बना नामको एक नर्तकी के नाम-मान:के निमित सें भ यंत्र संसारसे मुह मोरकर महतोके बाहर पाले मर्यगौर हकालवाद तपस्यामः सिद्धिनामापन अहिंसा पूर्ण धर्मका प्रचार करने लगे। उनमें प्रथम नो पुत्रों में राजत्यो बाद पतिव्रत अपनाया ना मोर सुसरे पुन मी ऋषि हो गये अहिंसा की दीक्षा देकर ऋषवाको पशुपति करने के सिके योग साधना करने का उपदेचा सबको देखे।। ' बार के तीर्थकरोंने प्राणिहिंसा न करने के लिये बिस नियम को स्वीकार किया उनका पालन होता बहा किन्तु बस यहाँ पर असुरोका प्रकोप हुमा मो अहिंसा — प्रधान गाईस्वाश्रम चलाना नामुमकिन हो गया। धर्मके कड़े कानून मोर शव नीतियां लोगो को अनुमाणित न कर सकी । इसीलिए ऐसे एक शुष्क ज्ञानमागं और निक्तिपर धर्मके अति पर समाज में बाश्चार मार्जन और नये नये सकारों के होने में प्रायम करने की बातही क्या है ? हिन्दुत्रों के पुलो मी कितनाही सिख विर्गम्बर साधषोंके मामासमालो सामल्लि. खित पाये जाते हैं । वे जैती दीक्षाके मूलमत्र और मुबतत्त्वका बहण करके निर्लोभ, हो नगरों में घूमते । इसतरह सजायकों पताके बाद महाभारत युगक प्रविष्टनाम का नाम हमें, मिलता प्रमाने में प्रविषानेमिका लोनो बाथरता था। लनताह कियावरणवाका मोगक्साका प्रचारक नही हो पाया था। परिष्टनम नामसे यो संस्कारासमा साशता CO LING. IYUONUNARY साधारण सादश्यखते ही भी १.ni THE । -

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