Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lakshminarayan Shah
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 51
________________ लना वंश से मायूस होता है कि इश्वी पू. १५वीं सदी में न सिंबल में प्रसारित हुआ था। इस तरह पूर्व उत्तर भौर दक्षिण में आदि में श्रुतवली जैनधर्म पहुँचा था। रामस्वामी प्रायागौर महोदय ने भी प्रश्न उठाया है कि उत्तर भारत का एक धर्म दक्षिण भारतको दिना स्पर्श किये हुए सिंहल पहुँच सका,यह कैसे संभव हुमा' 1. केवल यह तभी संभव हो सकता है जबकि यह संभव हो कि उनरसे बौवधर्म समुद्रके मार्ग से दक्षिणको गया था। इसके अतिरिक्त यह भी सोचना चाहिये कि एक जैन आचार्य अपने .विशाल जैन संघके भनेक साधुओं को अपने अधीन दक्षिण में ले गये तो यह कैसे संभव है कि भद्रबाहु के पहले वहाँ जैतधर्म का कोई प्रभाव नहीं, इसपर भला कैसे विश्वास किया जाय ? जैन पुस्तको, मे लिखा है कि सबसे पहले ऋषभ ने जैनधर्म को दक्षिण भारतमे प्रचारित किया था उनके पुत्र बाहुबली दक्षिण भारत के प्रथम राजा थे । वे ससार को त्याग कर नग्न जैन साधु बने थे । गोदावरी के किनारे पर अवस्थित पोदनापुरमे उन्होंने कठिन तपस्या की थी और सर्वदर्श बने थे। तब बाहुवली जी ने, दक्षिण भारतमें जैनधर्मका प्रचार किया था। इससे मालूम पड़ता है कि जनधर्म दक्षिण भारतम प्रति प्राचीनकाल से प्रविष्ट हुआ था। इसके अतिरिक्त साहित्य और स्तंभ मादि प्रमाणो से जैनधर्मका यह एतिहासिकत्व प्रमाणित हो रहा है। ___ जैन माहित्यमें भद्रबाहुके बहुत पहले दक्षिण मथुरा, पोदन पुर, पलासपुर दिल मलयगिरि के पास), महाशोक तार • मादि स्थानो कीलिमा कही बासी है। दक्षिणा माग,पांडव माश्यों द्वारा स्थापित हुई थी। उस समय के वनवास में बक्षिण nitisastet ,.. - 14 Studies in South India Jainism Part'."P:33.

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