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मात्रा है। वे सशफल अपने पुत्रों को राज्य लवन क्रिया था । ३०
संभूत और चक्रवर्ती राजा मे अन्त में भार अर्पण करके उन्होंने पतिव्रतका भव
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इस दृष्टिले विचार करने पर जैन मोर बौद्धधर्म मंशविशेष तथा क्षेत्र विशेष में वेदविधियोंका सड़न करने पर भी दोनों वैदिक धर्म सस्कार परम्परासे एकदूसरे से प्रभावित हुए माने जासकते हैं। प्रत्यक्ष रूपसे प्रासंगिक न होने पर भी इस ऐतिहासिक अच्छेक को यहाँ सूचित करनेका प्रधान कारण है जैनधर्म की मूल प्रकृति मोर ऐतिहासिक कालका निरूपण । उसके बाद धर्मकी झालोचना अधिकप्राजल हो जायेगी । इतिहास की पट्टभूमिसे सम्राट चन्द्रगुप्त के राजत्व मे कलिंग की राजशक्ति हमें स्पष्ट दिखाई देती है । हम समझते हैं कि कलिंगके राजा उस समयमी जैनधर्माबलबी थे । चद्रगुप्तका कलिंगका प्राक्रमण बिना किये ही दाक्षिणस्य भूभाग में प्रविष्ट हो जानेका कारण यह समधर्मस्व हो है ।
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कलिंगवासी प्रारमसे ही स्वाधीनवृत्ति के पोषक और बलवान थे। इतने शक्तिशाली और स्वाधीन होने के कारण ही कलिंगकी सेना स्वाधीनता और स्वादेशिकता के लिये प्राण देकर प्रशोकके साथ लड़ी थी । यद्यपि इन युद्धो में कलिंग देशकी स्वाधीनता चली गई और चंडाशोकले 'देवानां प्रिय' बनकर विश्वजनीन मैत्रीका प्रचार किया था। उससे उद्भासित होने पर भी कलिंग के लोग अपनी धर्मदीक्षाको भूल नही सके थे । खारवेल के दिग्विजयसे उसका प्रमाण मिलता है। खारवेल
२० भागवत १ स्कन्ध, हया ६
१ स्कन्ध
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१ स्कन्ध अध्याय ४
७ स्कन्ध
अध्याय ११
21-R.E VIII. Corpus Inscriptionum Indicarum Vol I by Hultsch