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मनवान हुमै थे । संगीत मौर वाद्रिशोके ध्वनि समरोह कलिंग जिनको पुनः कलिंगमें स्थापित किया गया। हाथीगुफा शिक्षालिपिसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि खारवेल प्रोर उसके परिवारके सभी लोग जैनधर्मावलम्बी थे । उनको भवति मौर स्नेह कलिङ्ग जिनके साथ प्रोतप्रोत ही था।
किन्तु इस प्रसंग में याद रखने की बात यह भी है कि जैन धर्म कलिंग मात्रका धर्म न था, बल्कि ई० पू० ६टी शताब्दि से ही भारतके प्रयेत्क प्रातमें हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्मावलम्बी मिलजुल कर रह रहे थे । उत्कल में हिन्दू, लोगो की पीतिनीति का प्रभाव जैनधर्मके ऊपर पडा प्रतीत होता है किन्तु जैनधर्म की प्राध्यात्मिक श्रृंखला, कठोर नियम पालन और तीर्थंकरोंको महनीयता और चरित्र विशिष्टता प्रादि विशेष गुणोंके द्वारा उत्कलीय प्रजाजन अनुप्राणित हुए ही थे । इसमे अचरज करने का कोई कारण नही है । यह हमारा व्यक्तिगत वैशिष्ट्य और देशगत प्राचार हैं । तीर्थंकरो के विराट व्यक्तित्व और त्यागके सामने कलिङ्गवासियो का स्वतः प्रणत होना स्वाभाविक ही था । खारवेल के समय में खडगिरि और उदयगिरिमें जैन साधुयों के लिये सैकडों गुफायें निर्मित हुई थी । खारवेल स्वय जैन थे इस कारण जैन साधुप्रो के प्रति उनकी व्यक्तिगत अनुरक्ति थी । हाथीगुफा शिलालेखके प्रारभमे ही चक्रवर्ती सम्राट् खारवेलने जैनधर्मके नमस्कार मूलमत्रको लक्ष्य करके अपनी भक्ति प्रद शितकी है। शिलालिपि की प्रथम पंवति में लिखा है कि:'नमो घरहतान' 'नमो सवसिधानं' '
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1. "Let the head bend low in obeisance to arhats, the Exalted Ones.
Let the head bend low (also) in obeisance to all Siddhas, the perfect Saints."
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