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दोनों प्रनादिसे परस्पर प्राधारित है। पुद्गल (Matter) में भी पर्याय या परिवर्तन होते है। जैन कुल छे द्रव्य या वस्तु मानते है, जो जीव, पुद्गल, धर्म, प्रधर्म, प्राकाश मोर काल है ।
जैनधर्मका स्याद्वाद न्याय एक चमत्कार पूर्ण तथ्य है । वास्तवमें यही है जैनधर्मका दर्शन । 'स्यात् मस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् प्रस्ति नास्ति, स्यात् प्रवक्तव्य, स्यात् मस्तिप्रवक्तव्यं, स्यात् नास्ति, प्रवक्तव्यं स्यात् अस्ति नास्ति वक्तव्य' अर्थात् यह हो सकता है, यह नही हो सकता है, किसी दृष्टि विशेष से है, किसी दृष्टि बिशेष से नही है । स्याद्वादका अर्थ इस तरह बडा विलक्षण श्रीर विचित्र है। प्रनेकान्त उसकी पृष्ठभूमि है। एक ही वस्तु प्रनेकदृष्टि कोण से देखी जा सकती है । जैसे पिता के सम्बन्धसे मैं पुत्र हूँ, बहन के सम्बध से भाई, भतीजा के सबन्धसे चाचा, एक होने पर भी में बहु प्रकारसे मान्य हुँ । लेकिन पिता माता के सम्बन्ध से मैं पुत्र होते हुए भी बहन के सबन्धसे पुत्र नही हूँ । भगर दोनो के सम्बन्धसे मेरी वर्णना की जाय तो में पुत्र हूँ फिर भी स पुत्र नहीं हूँ । एक होते भी एक होना या न होना अनिवचनीय है । इसीलिये विश्वके बाहरकी बातो को तथा विचार शैली से बाहर ठहरने वाले ससारकी विविध वस्तुनोंको विविध दृष्टिकोण से देखने के द्वारा हमारी दृष्टि उदार होती है, विभिन्न प्रकार के विरोध हट जाते है मोर प्रेम का प्रसार होता है । यह है जैन न्यायकी. विशेषना वह समन्वय की प्राधारशिला है । जैनधर्म मे मुख्यत: सात तत्वोकी मीमासा मिलती है । वे तत्व निम्न प्रकार है.
जीवचैतन्य गुण संपन्न सत्ता । अजीब शरीरादि जड़ पदार्थ ।
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मानव- शुभाशुभादि कर्मों का द्वार । कर्मबन्धमात्मा और कर्मका पारस्परिक संमेलन ।