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संबर-शुभाशुभ कर्मोंका प्रतिकार। निर्जरा-सचित कर्मोसे स्वतन्त्र होना।
मोक्ष-कर्मका सपूर्ण विनाश व प्रात्मस्वातंत्र्य । जैनियोंके अष्टमांगलिक द्रव्य भी है । उसीसे हमारी प्रष्टमगलको मान्यता है । विवाह के बाद अष्टमंगलो का अनुष्ठान होता है। इसमे ८ प्रकारके उस्तु होते है, यथा - स्वस्तिक, श्रीवत्स,नन्द्यावर्त,वर्धमान या भद्रासन, कलस,मत्स्य अोर दर्पण । साधारणत हम मगल के लिये पूर्णकु म की स्थापना करते है । पौर उसमें आम की डाल डालते है । दही और मछली का प्राकार भी मगलसूचक है। __इससे स्पष्ट मालूम होता है कि जैनधर्मके अष्टमगल द्रव्यो को हमने हिन्दूधर्मके अन्दर घुसालिया है, अष्टमगल द्रव्यो का दूसरा सभी है रूपभी यथा -मृगराज वृक्ष,नाग,कलस,व्यजन,वैजयन्ती, भरी और दीप । कही कही इसप्रकारके प्रष्टमगलक मिले है-ब्राह्मण गौ, हुताशन, हिरण्य, घृत, प्रादित्य, अप और राजा । जैनधर्म में पूजाके प्रसगमे प्रष्ट प्रातिहार्योका प्रचलन है। यथा -प्रशोक वृक्ष, सुर- पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, मासन, भामडल दुदुभि और मातपत्र ।
बौद्धोको तरह जैनियोका भी त्रिरत्नमें विश्वास है । ये त्रिरत्न जैनधर्मके सारे तत्वों का समाहार है । सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र मोक्ष प्राप्तिके लिये ये तीन चीज एक अवलबन है। (४) जैनधर्म मे स्वस्तिक चिन्ह की एक विशेष प्रावश्यक मान्यता है। नीचे स्वस्तिकका एक चित्र दिया गयाहै।
मनुष्य देवता
तिर्य
मारकी मतत्वार्थपून oh i. vita