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माजसे करीब २५०० साल पहले इस जैनधर्म से जिस बौद्धधर्म का उद्भव हुमा था, उसकी विशेष मालोचना भी जरूरी है। इसके निर्णय में अबतक पश्चिमी मोर भारतीय प्रत्नतत्त्वविदों के बहुत से श्रम रह रहे है । पौर खारवेल प्रादिके समय में को याद रखना होगा कि वे और उनके जमाने का धर्म पौर उनके बाद एक हजार साल के बाद का धर्म यद्यपि जैनधर्म के नामसे ख्यात है फिर भी विशुद्ध जैनधर्म नही हो सकता । मुमकिन है कि तब तक इस पर बौद्धधर्म का प्रभाव पड़ गया होगा। उत्कल में यद्यपि वह धर्म के नामसे प्रचलित था, फिर भी शायद उसके साथ हीनयान बौद्धधर्म मिल चुका था। विशेषत.ह्य एनसां के विवरण और बुददन्त की सिंहली परम्परासे यह जाना पाता है।
ह्य एनसां के कालकी बात ह्य एनसां के काल में चीनो तथा तद्विद् पण्डितो के विचारमें बौद्धधर्म का प्रथं 'महायान बौद्धधर्म'था। उस समय पूर्वी भारत में सभव है कि वज्रयान तक का विकास हो चुका था। इसलिये वे समझते थे कि बौद्धधर्म के माने निग्रहानुग्रह समर्थ भगवान बुद्धका धर्म अथवा शून्यवादी घोर वामाचारियो का प्राचार है। उस समय यथार्थ मौलिक बौद्धधर्म हीनयानी बौद्धधर्म में पर्यवसित हो चुका था । मुमकिन है कि जैनमियों में से कितने ही हीनयानी बौद्धोके रूप में परिचित थे। जिनको अपने धर्म के प्रतिपादन के लिये हर्षबर्द्धन ने बुलाया था, वे बैन थे।
जैनधर्म और बौद्धधर्म अफसोस की बात है कि उन्नीसवी सदी के योरोपीय प्रत्नतात्त्विकोने इस बात को गलत रूपमें समझ कर भारत तथा ससार के लिये एक प्रपपरम्परा बना दी है । सुनने को