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मेरो माया मैने इन क्षेत्रों में साक्षात् रूपसे मालोचना करनी कुठे हद तक छोड़ दिया है। प्रथ पाठका शारीरिक श्रम भी अब मेरे लिये प्रायः संभव नहीं है, फिर भी इस क्षेत्रमें जो इस परिणत वपमें जो प्रतिष्ठित धारणा हो गया है,उसके बल पर कुछ लिख रहा हूँ।
मेरामुख्य श्रीलक्ष्मीनारायणजी ने जैनधर्मके सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है वह सब उपादेय है,लेकिन उनके इन विचारों तथा पालोचना से जैनधर्मकी सारी बातें समझी नहीं जासकतीं। सिर्फ उत्कल या भारत में ही नहीं बल्कि पुराने सम्यमानव समाज में भी जैनधर्म की बडी प्रतिष्ठा थी। उसके सकेत और निदर्शन प्राज भी उपलब्ध है। भारत में अब भी इस धर्मको प्रतिष्ठा,प्रभाव मौर प्रतिपत्ति सभी प्रचलित धोंमें प्रतिष्ठित और प्रचारित है, यद्यपि विभिन्न कारणो से इसकी यह प्रतिष्ठा पूरी तरह दिखतो जरूर नही हैं और इस्लाम या ईसाई धर्म का सा प्रचार भी नहीं है, जिससे कि स्पष्ट दिखाई दे ।
जैन नामका एक संप्रदाय अब भी भारतमें है। पृथ्वी पर भन्यत्र जैनधर्म प्रभी तक स्वतत्र धर्मके रूपमें नहीं दिखा है,लेकिन भारत में है। और भारत का यह जैनधर्म कुछ हद तक पादान प्रवान के कारण दूसरे धोका सा हो गया है। इसलिये उसमें श्री लक्ष्मीनारायणजी ने जैनधर्म का जो स्वरूप बतलाया है वह पूर्णतः स्पष्ट नही है । फिर भी कहा जा सकता है, कि जैनधर्म भवभी भारतमे चिरस्थायी रूपमे है। खासकर उत्कल में प्राचोन कलिंग के कालसे इस धर्मका प्रमुख्यत्व था और प्रभाव बड़ा गहरा था। इसके बहुतसे प्रमाण है। अब भी जगन्नाथजी में इस के सारे प्रमाणों की खोज की जा सकती है । इसके अलावा