Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lakshminarayan Shah
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 29
________________ मी सेवा करने जैसा जोखमभरा काम करने में प्रानन्द अनुभव किया है । जब जब दुभिक्ष पड़े और बाड़े आई तब तब मासाम, वंग, विहार, मोड़िसा, हिमालय मादि स्थानोमे जाकर लोकसेवा के कार्य किये है । इस वृद्धावस्थामे उनका सम्मान राष्ट्रने किया है । माप को राष्ट्रपति द्वारा "पद्मश्री" उपाधि प्राप्त हुई है। विद्यापीठ प्रान्ध्र इतिहास प्रत्नतत्व समितिसे "भारततीर्थ" और अ. विश्व जैन मिशनके विद्यापीठसे"इतिहासरत्न"प्रादि उपाधिया भी उन्होने प्राप्त की है। विद्यारसिक ऐसे है कि अंग्रेजी माधुनिक भारतीय साहित्योमें तथा अर्थनीति और इतिहासमें एम०ए०प्राईवेट पास किया है। वह जीवनकी गहराई में बहुत तेरे है और महानदियो के तैराक भी रहे है । मलानदी, विरूपा, शिबपुर और खिदिरपुर के पास गगानदोमे इस पार से उस पार हुये पार पुरी समुद्रमें ७-८ मोलतक अन्दर सैर पाये थे। इलाहाबाद के निकट गगा यमुना के सगममें भी तेरे थे। पदयात्रा करने में भी वह निपुण है। हिमालयमें दैनिक २६ मोलतक चलना और समतल भूमि दैनिक ४०-५० मीलतक चलना, ये सब कुछ उन्होने किये हैं। लक्ष्मीनारायण बाबू लोक परिचित एवं प्रख्यात होने पर भी कभी कभी भोकाको अनुभव करते है । लेकिन अपने सब दुःख को वह कविता और न थ रचना करके भूल जाते हैं। मह उनकी विशेषता है। भारतवर्षका पर्यटन भी उन्होने कई दफा किया है और बहुत जगहोके दर्शन किये है। प्रतः उन के प्रेमी बन्धुवर्ग प्रसस्य है । आज उनकी ६८ वर्षकी प्रायु है, फिर भी उनमें एक युवक का सेवा-लगन और उत्साह है ग्रह शतजीवी होकर कल्याणमूर्ति बने, यह प्रार्थना है गणेश चतुर्थी -प्रकाशक उड़िया पुस्तक भानिश्न १,२३६५.

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