Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ जैन अर्द्धमागधी आगम में प्रसाधन कला सृष्टि का हर जीव सौन्दर्य - प्रिय होता है । सुन्दर और सौन्दर्य की अनुभूति की अभिलाषा अवचेतन मन में संस्कारगत विद्यमान रहती है। प्रकृति जगत्, मानवसंसार सब कुछ सौन्दर्यमय होता है । सुन्दर दिखना, सुन्दर देखना और सुन्दर दिखाना यह मूल तत्त्व होता है । भोजन, अन्न, पानी की पूर्णता के बाद सृष्टि जगत् उपर्युक्त त्रिपादी की ओर प्रस्थान करता है। उसके कल्पना लोक में सौन्दर्य की अनुपमेय कला विद्यमान होती है, जिसमें रमकर व्यक्ति रमणीय बन जाता है। यह सुन्दरता और रमणीयता दो तरह की ही होती है आन्तरिक और बाह्य । आन्तरिक सौन्दर्य आत्मगत सौन्दर्य है, जो शील, व्यवहार, चरित्र एवं अन्य बाह्य कार्यों से अभिव्यक्त होता है । बाह्य सौन्दर्य शारीरिक सौन्दर्य है, जिसका द्वैविध्य प्रसिद्ध है - निसर्गगत और कृत्रिम | निसर्गगत रमणीयता लोकोत्तर एवं श्रेष्ठ होती है । कालिदास आदि कवियों ने स्पष्ट रूप से उद्घोष किया है डॉ. हरिशंकर पाण्डेय किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ॥१ दूसरा सौन्दर्य कृत्रिम होता है, जो प्रसाधन - साध्य है, जिसमें रूपनिखार एवं सौन्दर्य सम्बर्द्धन के लिए बाह्य वस्तुओं चन्दन, अगरु, सुगंधित तैल, पुष्प, आभूषण, वस्त्र आदि का प्रयोग किया जाता है। प्रसाधन-साध्य बाह्य सौन्दर्य की महत्ता भी कम नहीं है। प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति प्रसाधन-विद्या में अग्रणी रही है। यही कारण है कि प्रसाधन विधि को प्रमुख ७2 या ६४ कलाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । प्रसाधन विमर्श तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004 - प्र उपसर्ग पूर्वक स्वादिगणीय 'साधसंसिद्धौ' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर प्रसाधन शब्द निष्पन्न होता है। 'प्रसाध्यतेऽनेनेति प्रसाधनम्' अर्थात् जिससे यशस्वी बनाया जाए, रमणीय बनाया जाए, सुन्दर बनाया जाए, वह प्रसाधन है । 'प्रसाधन' Jain Education International For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114