Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ शब्द में विनियुक्त प्र उपसर्ग एवं साध् धातु प्रसाधन की महनीयता एवं यशस्वीयता को सिद्ध करता है। प्रसाधन केवल बाह्य दिखावा मात्र नहीं बल्कि अपने को पूर्ण बनाने की कला है। सत्य, शिव और सुन्दर तीनों का साहचर्य ही प्रसाधन है। यही कारण है कि सृष्टि समस्त मानवों में चेतन प्राणियों में प्रसाधन की प्रवृत्ति पाई जाती है। एक सर्वस्व त्यागी एवं सर्वात्मना विरक्त महात्मा भी अपनी नित्यक्रिया में शरीर को प्रसाधित करता है, जटाओं को सजाता है, नित्यप्रति स्नान करता है। विश्व सुन्दरी पार्वती और निसर्गरमणीय शकुन्तला का प्रसाधन वनलता एवं वनपल्लवों से ही होता है। वृक्ष-वल्कल से सुशोभित शकुन्तला की देहयष्टि के ऊपर दुष्यन्त आकर्षित हो जाता है। दो विधाताओं की श्रमसाध्या अनुपमा सृष्टि राजशेखर की कर्पूरमंजरी आंखों के माध्यम से संसार के चित्त पर अपना अधिकार कर लेती है - चित्ते लिहिज्जदि ण कस्स वि संजमंती सवणपहनिविट्ठा माणसं मे पविट्ठा॥ अर्द्धमागधी आगम साहित्य में ऐसे अनेक स्थल है, जहां पर प्रसाधन-कला का विस्तार से वर्णन मिलता है। पुत्र जन्मोत्सव, राज्याभिषेक, विवाहोत्सव, दीक्षा-महोत्सव आदि के अवसर के अतिरिक्त प्रतिदिन नित्यक्रिया-काल में स्नान, मज्जन, विलेचन, सुगंधित द्रव्यों का प्रयोग आदि किया जाता था। श्रमणोपासक गाथापति आनन्द की पत्नी "शिवानन्दा' को श्रृंगार का आगार कहा गया है। ज्ञाताधर्म और राजप्रश्नीयसूत्र में धारिणी को श्रृंगार से विभूषित बताया गया है। पुत्रोत्सव-काल में अनेक बहुमूल्य प्रसाधनों का प्रयोग किया जाता था। भगवान महावीर के दीक्षा पूर्व उनके शरीर को खूब सजाया गया था। मेघकुमार, थावच्चापुत्रादि के दीक्षोत्सव पर उनके शरीर को प्रभूत रूप से प्रसाधित किया गया था। प्रसाधन प्रकार मनुष्य को आकर्षक, सुन्दर और स्वस्थ बनाने वाली सभी साधन प्रविधियां प्रसाधन के अन्तर्गत आ जाती हैं। चरकसंहिता में नित्य-अवश्यकरणीय के रूप में प्रसाधन-संसाधनों का वर्णन है। वहां कहा गया है कि जैसे रक्षी पुरुष नगर की तथा सभी रथ की देखभाल करता है, वैसे ही मेधावी पुरुष को अपने शरीर को प्रसाधित करना चाहिए - नगरी नगरस्येव रथस्येव रथी यथा। स्वशरीरस्य मेधावी कृत्येष्वहितो भवेत्॥ शरीर को स्वस्थ और सुन्दर बनाने के लिए अंजन, तैल का नस्य, दन्तधावन, जिह्वानिर्लेखन, मुखशोधन (ताम्बूल) तैल-गण्डूष, सिर पर तैल लगाना, तैलाभ्यंग, पैरों में तैलमालिश, स्नान, निर्मलवस्त्रधारण, गन्ध-माल्य का सेवन, रसधारण, पैरों को बार-बार धोना, बालों को कटवाना, नख कटवाना, जूता पहनना, छाता धारण करना, दण्डधारण करना आदि कार्य प्रतिदिन अवश्यकरणीय हैं। 8 0 तुलसी प्रज्ञा अंक 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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