Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ ९. कंचुक, १०. नूपुर, ११. सुगन्ध (अंगराग), १२. कंकण, १३. चरणराग (आलक्तक), १४. मेखलारणण (क्षुद्रघंटिका), १५. ताम्बूल, १६. करदर्पण। ___'उज्ज्वरलनीलमणि'१२ के राधा प्रकरण में सोलह श्रृंगारों का नामोल्लेख इस प्रकार हैं -१. स्नान, २. नासाग्रजाग्रन्मणि (नासा मौक्तिक), ३. असितपट, ४. सूत्रिणी (नीवीबन्धयुक्ता), ५. वेणीबन्धन, ६. कर्णावतंस, ७. अंगों को चर्चित करना, ८. पुष्पमाला धारण करना, ९. हाथों में कमल लेना, १०. बालों में पुष्प लगाना, ११. ताम्बूल, १२. चिबुक को कस्तूरी से चित्रित करना, १३. काजल, १४. शरीर को चित्रित करना, १५. आलक्तक, १६. तिलक। जैनागमों में प्रसाधन कला का सुन्दर वर्णन मिलता है। संक्षेप में विवेचन अधोविन्यस्त है:१.स्नान 'स्ना-शौचे१३ धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर स्नान शब्द बनता है। जिससे पवित्र होता है, वह स्नान। अमरकोशकार ने आप्लाव, आप्लव और स्नान को पर्याय वाचक माना है। मज्जन, अवगाहन, अभिषेक, उपस्पर्शन, सवन, सर्जन आदि शब्द भी स्नान के पर्याय माने जाते है।१५ भारतीय संस्कृति में स्नान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्नान प्रतिदिन की नित्य-क्रिया का प्रमुख-कृत्य है। चरकसंहिता में स्नान की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि स्नान करने से शरीर की दुर्गन्ध, शरीर में भारीपन (आलस्य), तन्द्रा, कण्डू, मैल, भोजन या काम में अनिच्छा, पसीने की वीभत्सता आदि नष्ट हो जाती है। स्नान करना पवित्र, वृष्य, आयुवर्धक, श्रम-स्वेद-मल को दूर करने वाला है। शरीर में बलवृद्धि करता है तथा ऊर्जा को बढ़ाता है। __ जैनागम साहित्य में अनेक स्थलों पर अभिषेक (अभिसेअ, अभिसेग और अभिसेय), मज्जन (मज्जण), स्नान (ण्हाण) आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। ज्ञाताधर्मकथा के नवम अध्ययन में पुष्कर-(पोखरे में) स्नान का वर्णन मिलता है। माकंदी पुत्र स्नान पूर्व शरीर में तैलमालिश कर पोखरिणी में स्नान करते हैं - अण्णमण्णस्स गायाई अब्भंगेति, पोक्खरणीओ ओगाहेति जलमज्जणं करेंति। अर्थात् माकंदी पुत्रों ने परस्पर एक दूसरे को तैलमालिश किया, मालिश कर बावड़ी में प्रवेश किया, प्रवेश कर स्नान किया, स्नान कर बाहर निकले। ज्ञाताधर्मकथा के तेरहवें अध्ययन के अन्तर्गत नन्दा पुष्करिणी के वर्णन के अवसर पर स्नान और स्नान के फल श्रम-स्वेद-खेदादि का अपमार्जन का भी वर्णन है। चरकसंहिता में निर्दिष्ट स्नान फल की साम्यता यहां देखी जा सकती है - तए णं तीए णंदा पोक्खरिणीए......... सुहंसुहेणं विहरंति । ..... जलरमणविहिमज्जण..."विहरइ। बहुजणो ण्हायमाणो...... २८ तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004 । - 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114