Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 34
________________ दास गुप्ता शांति के परम्परागत अर्थ को नकारते हैं तथा शांति का नवीन दृष्टिकोण विकसित करते हैं। गैलटन के अनुसार सांमजस्य की अवस्था एक सामान्यावस्था है जो कि परस्पर विरोधी शक्तियों के अन्तर्गत तथा उनके मध्य है, चाहे वह व्यष्टि स्तर पर हो अथवा समष्टि स्तर पर । सामान्यतया साम्यावस्था गत्यात्मक अवस्था न होकर स्थैतिक है, किन्तु इस अर्थ में शांति केवल हिंसा का अभाव है तथा सामंजस्य शांति के लिए एक अनिवार्य अथवा पर्याप्त शर्त बनकर रह जाती है, शांति का यह रूप केवल नकारात्मक शांति मात्र से है। शांति की इस अवधारणा में शांति का पर्याय संगठित हिंसा के अभाव से कहीं अधिक है, साथ ही यह मात्र शक्तियों एवं राष्ट्रों के मध्य असमानता तथा शोषण का अभाव मात्र भी नहीं है। सूक्ष्म रूप में सकारात्मक शांति सभी के लिए समान अधिकारों की वकालत करने वाली व्यवस्था से सम्बन्धित है। दास गुप्ता के अनुसार शांति और युद्ध परस्पर सम्बन्धित प्रत्यय है। पश्चिमी जगत में युद्ध एवं शांति को एक-दूसरे के विपरीत माना जाता है, अत: वहां युद्ध और शांति का अभाव भी अन्तर्सम्बन्धित है। दास गुप्ता और रफीक खान के अनुसार युद्ध, हिंसा, तनाव तथा शोषण का अभाव केवल शांति के नकारात्मक पक्ष का ही निर्माण करते हैं। शांति का सकारात्मक पक्ष मानवीय एवं सामाजिक विकास की प्रक्रिया है, जो कि सुनियोजित व मनुष्योन्मुखी दिशा में सतत सामाजिक परिवर्तन का पोषक है। नकारात्मक शांति के प्रबन्धन के प्रयास हेतु मात्र प्रत्यक्ष हिंसा व शोषण का अभाव मात्र ही पर्याप्त नहीं है, वरन् संगठनात्मक किन्तु अप्रत्यक्षरूप से अस्तित्वमय हिंसा का अभाव भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। हिंसा समाज के सूक्ष्म पृथक्करणीय हिस्सों तथा मनुष्य के मस्तिष्क में निहित होती है। अतः शान्ति का नया प्रत्यय सामाजिक ढाँचे के विकास से जुड़ा हुआ है तथा शांति के सभी पक्षों, अशान्ति असन्तुलित विकास एवं सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित है। शांति को यदि केवल अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भो में मान्य समझा जाए तो यह कभी प्रभावी नहीं हो सकती। शांति एक देश के अन्दर साथ ही समाज के अन्दर भी होनी चाहिए, क्योंकि एक शान्तिविहीन समुदाय अन्य समुदायों के साथ सहयोगपूर्ण तरीके से नहीं रह सकता। अतः शांति की समस्या को किसी समाज की आन्तरिक शांति की समस्या के रूप में समझा जाना चाहिए। एक ऐसी समाज व्यवस्था जो कि इसमें रहने वाले व्यक्तियों को अपनी आन्तरिक समस्याओं के समाधान हेतु हिंसा और आतंक को प्रेरित करे, कभी भी शांतिपूर्ण समाज की स्थापना में सहयोगी नहीं होगी। इस मुद्दे को अब भिन्न दृष्टिकोण से देखने हेतु हम एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जिसमें कि लोग बहुत व्यवस्थित तरीके से व्यवहार करते हैं। ये लोग अपने झगड़ों को तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004 5 - 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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