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विन्ध्यगिरि की जैन कला
सुश्री अरुणा सोनी
कला जीवन की अभिव्यक्ति है। आध्यात्मिक और सांस्कृतिक साधना का जीवन्त क्षेत्र कला है जो प्रतीकात्मक पद्धति पर अवलम्बित है। जैन-कला के साधकों ने भी स्वान्तः सुखाय उसी सुरम्य प्रांगण को उद्योतित किया है। स्तूप, चैत्य, चक्र, गुहा आदि सभी में जैन -साधना की भावनाएं अंकित हुई हैं। यहीं कला और धर्म का जीवन और साधना का समन्वय होता है।
कला व्यक्ति का ज्ञान है और जिसका अर्थ होता है -शिल्प या विशिष्ट प्रकार की दक्षता । स्थूल रूप से कला का विभाजन दो रूप से किया गया है
(क) ललित कला (ख) यांत्रिक या उपयोगी कला। वास्तुकला ,मूर्तिकला ,चित्रकला, संगीत और काव्य कला आदि ललित कलाएं हैं। बढ़ई, लुहार, राजमिस्त्री, कुम्भकार, जुलाहे आदि के कार्य उपयोगी या यांत्रिक कला में आते हैं। यद्यपि इन सभी कलाओं का अन्तर्भाव भी स्थापत्य या मूर्तिकला में हो जाता है।
प्रागैतिहासिक जैन कला-प्रागैतिहासिक काल में भी कला प्रतीक रूप में प्रारम्भ हो चुकी थी। चूंकि इस काल में भाव अमूर्त या अस्पष्ट थे, अतः उस युग की कलाओं का स्वरूप प्रतीकात्मक रहा। इस काल में भाव भौतिक आकृतियों में पूर्णतः व्यक्त नहीं हो पाया था, इसलिए कलाएं भद्दी और कुरूप थीं, जैसे - प्राचीन देवीदेवताओं की मूर्तियाँ, जिनमें आकृति तो है किन्तु स्पष्ट भावाभिव्यक्ति नहीं।
लेकिन धीरे-धीरे यह भावना प्रबल हो गई कि तीर्थंकरों ने जन-जन के कल्याण और उपकार के लिए जो कुछ किया उस अनुग्रह को जनता ने बड़ी श्रद्धा के साथ स्वीकार किया और जब तक तीर्थंकर विद्यमान रहते हैं तब तक जनता उनके चरण कमलों में जाकर भक्ति, पूजा करती है मगर जब उनका निर्वाण हो जाता है तब जनता में उनका अभाव तीव्रता से अनुभव किया जाने लगता है। जनता की इस अभिव्यक्ति बल्कि तीव्र अभिव्यक्ति ने, अनुभूति ने प्रतीक पूजा-पद्धति को जन्म दिया। जैन -धर्म में प्रतीकों के रूप में स्तूप, त्रिरत्न, चैत्य स्तम्भ, चैत्यवृक्ष, पूर्णघट, शराव सम्पुट (मिट्टी का पात्र, दोना) पुष्पमाला आदि मुख्य हैं।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 123
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