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यह अरिष्टनेमी का कला कौशल ! एकाग्रता, तल्लीनता तथा काम के प्रति रुचि के साथ स्व चेतना का समर्पण |
दक्षिण के जैन मन्दिरों के विषय में सबसे अधिक स्मरणीय बात यह है कि ये सब स्थापत्य कला की दृष्टि से द्रविड़ शैली के हैं। द्रविड़ मन्दिरों में न तो शिखर ही है और न कलश है। ये यहाँ के मन्दिरों की खासियत है। इनकी विशालता से ऐसा लगता है मानो वे किले ही हों। इन सबके भीतरी भाग में जिसे गर्भगृह कहते है वहाँ तीर्थंकर की मूर्तियाँ विराजमान रहती हैं । इस भाग में प्राय: अंधेरा रहता है। गर्भगृह से जुड़ता हुआ नवरंग होता है । इसमें कम से कम 12 स्तम्भ वाला आंगन जरूर होता है। बाहरी भाग में द्वार के पास सुखासी होती है। सुखनासी में प्रवेश सीढ़ियों द्वारा होता है । प्रायः मन्दिरों की रचना इसी तरह होती है। इनमें परिक्रमा नहीं होती ।
इस प्रकार विन्ध्यगिरि के जैन - मन्दिर अपनी अलग छटा बिखेर रहे हैं और अपनी भारतीय संस्कृति की प्राचीनता, सौम्यता और स्थायित्व को दर्शाते हैं ।
संदर्भ सूची:
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तुलसी प्रज्ञा जनवरी - मार्च, 2004
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शोध-छात्रा
प्राकृत एवं जैनागम विभाग जैन विश्वभारती संस्थान
लाडनूँ - ३४१३०६ (राजस्थान)
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