Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 46
________________ यह अरिष्टनेमी का कला कौशल ! एकाग्रता, तल्लीनता तथा काम के प्रति रुचि के साथ स्व चेतना का समर्पण | दक्षिण के जैन मन्दिरों के विषय में सबसे अधिक स्मरणीय बात यह है कि ये सब स्थापत्य कला की दृष्टि से द्रविड़ शैली के हैं। द्रविड़ मन्दिरों में न तो शिखर ही है और न कलश है। ये यहाँ के मन्दिरों की खासियत है। इनकी विशालता से ऐसा लगता है मानो वे किले ही हों। इन सबके भीतरी भाग में जिसे गर्भगृह कहते है वहाँ तीर्थंकर की मूर्तियाँ विराजमान रहती हैं । इस भाग में प्राय: अंधेरा रहता है। गर्भगृह से जुड़ता हुआ नवरंग होता है । इसमें कम से कम 12 स्तम्भ वाला आंगन जरूर होता है। बाहरी भाग में द्वार के पास सुखासी होती है। सुखनासी में प्रवेश सीढ़ियों द्वारा होता है । प्रायः मन्दिरों की रचना इसी तरह होती है। इनमें परिक्रमा नहीं होती । इस प्रकार विन्ध्यगिरि के जैन - मन्दिर अपनी अलग छटा बिखेर रहे हैं और अपनी भारतीय संस्कृति की प्राचीनता, सौम्यता और स्थायित्व को दर्शाते हैं । संदर्भ सूची: 1. 2. 3. 4. 5. 6 7. 8. : जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, पृष्ठ- १७, १८, लेखक- बलभद्र जैन, मै. केशरीचन्द्र श्रीचन्द चावलवाले, दिल्ली दक्षिण भारत में जैन धर्म पृष्ठ- ११४ लेखक- पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्ताचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन १९६७ जैन शिलालेख संग्रह, भाग - प्रथम पृष्ठ - १, २, ३ श्री हीरालाल जैन, श्री माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला समिति जैन इतिहास और कला, पृष्ठ १६७, डॉ. वी. एस. द्विवेदी, श्री पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली - १९८७ जैन बद्री के बाहुबली और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ -पृष्ठ- १०, सुरेन्द्र पाल श्रीनाथ जी जैन, जैन पब्लिसिटी ब्यूरों, बम्बई - १९५३ जैन कला और स्थापत्य, अमलानंद घोष, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली - १९७५ जैन बद्री के बाहुबली और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ पृष्ठ - ११, सुरेन्द्र पाल श्रीनाथ जी जैन, जैन पब्लिसिटी ब्यूरों, बम्बई - १९५३ महाभिषेक स्मरणिका ९१८ - १९८१ पृष्ठ-५४ तुलसी प्रज्ञा जनवरी - मार्च, 2004 Jain Education International शोध-छात्रा प्राकृत एवं जैनागम विभाग जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूँ - ३४१३०६ (राजस्थान) For Private & Personal Use Only 41 www.jainelibrary.org

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