Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 113
________________ मैं और वह मैं चाहता हूँ कि जो मैं देखता हूँ वह दूसरे भी देखें और जो मैं नहीं देख सकता, वह भी देखें। मैं अपनी अच्छाइयों को अच्छी तरह देख लेता हूँ। अपनी दुर्बलताओं को भी पहली दृष्टि से देखता हूँ। फिर भी बहुत सम्भव है- मुझमें जो विशेषताएँ विकास पा सकती हैं, उसे मैं न जानता होऊं। जो कमजोरियां तर्क को ओट में छिपी पड़ी हैं, उन्हें मैं न समझता होऊं। मैं खुली पुस्तक की भाँति स्पष्ट रहना चाहता हूँ । जिस दिन अपनी अच्छाइयों की अभिव्यक्ति का साहस और बुराइयों को न छिपाने का मनोभाव मुझमें प्रकट होजायेगा, उस दिन जो मैं देखूगा, वही दूसरे देखेंगे। फिर मेरे और दूसरों के दर्शन में कोई भेद नहीं होगा। - आचार्य महाप्रज्ञ 108 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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