Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 81
________________ है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आकाशीय विद्युत और प्रयोगशाला की विद्युतये दोनों एक हैं । यदि शास्त्रीय दृष्टि से आकाश की बिजली सजीव है तो प्रयोगशाला इत्यादि की बिजली भी सजीव है।' (सम्यग्दर्शन-मासिक, ता. ५-७-२००२ में से साभार उद्धृत।)20 उत्तर- मूलतः बिजली या इलेक्ट्रीसीटी अपने आपमें क्या है-इसका पूरा विवेचन हम कर चुके हैं तथा यह भी देख चुके हैं कि आकाशीय बिजली (Lightning) की प्रक्रिया में किस प्रकार इलेक्ट्रीसीटी का discharge' काम करता है और हमारे शरीर में भी बिजली (इलेक्ट्रीसीटी) किस प्रकार कार्य करती है। हमें इलेक्ट्रीसीटी, शरीर में काम करने वाली बिजली और स्थित-विद्युत् (Static Electricity) आदि सभी प्रकार की बिजली की प्रक्रियाओं में रहे अन्तर को समझना होगा। हमें फ्रेंकलीन, डॉ. डी.एस. कोठारी, एन्सायक्लोपीडिया आदि द्वारा किए गए कथन की अपेक्षा को समझना होगा कि वे किस दृष्टि से दोनों को एक मानते हैं। हमारे विवेचन में हम बता चुके हैं कि कोई भी पदार्थ चाहे सजीव हो या निर्जीव, एकेन्द्रिय जीव का शरीर हो या पंचेन्द्रिय जीव का शरीर-सब कुछ विद्युन्मय है-इलेक्ट्रोन, प्रोटन आदि जो स्वयं विद्युत् के रूप हैं, सभी पदार्थों के मलू घटक हैं। तार में प्रवाहित विद्युत् धारा उन्हीं इलेक्ट्रोनों का ही धातु (जो सुचालक है) के माध्यम से स्थानान्तरण है। स्थित विद्युत् के रूप में भी यही विद्युत् अचल अवस्था में रहती है। हमारी प्रत्येक क्रिया भी विद्युत् के परिणमन के द्वारा ही चल रही है। ऐसी स्थिति में आकाशीय बिजली (Lightning) जो सचित्त तेउकाय है, की तुलना केवल तार वाली विद्युत् से करना कहाँ तक संगत होगा? फिर तो सब कुछ सचित्त तेउकाय मानना होगा। पर सब कुछ तेउकाय नहीं हैं क्योंकि आकाशीय विद्युत की प्रक्रिया में जलने की प्रक्रिया स्पष्ट है पर सर्वत्र वह नहीं है। फिर तार वाली इलेक्ट्रीसीटी भी जब तक तार में है तब तक जलने की क्रिया से मुक्त है, इसलिए सचित्त तेउकाय नहीं मानी जा सकती। आकाशीय बिजली और अन्य बिजली में समानता भी है, भिन्नता भी। डॉ. दौलतसिंह कोठारी के उद्धरण से केवल यही फलित होता है कि विद्युत् का अपने आप में स्वरूप एक है। उसके विभिन्न रूपों को डॉ. कोठारी कैसे नकारेंगे। यदि सारी विद्युत् एक ही है, सचित्त तेउकाय ही है, तो फिर सभी क्रियाओं में उसका प्रयोग होने से सारा वर्ण्य हो जायेगा। एक और अनेक की अपेक्षाओं को न समझना जैन दर्शन को कैसे मंजूर हो सकता है ? सिद्ध आत्मा और निगोद की आत्मा आत्म-स्वरूप की अपेक्षा से एक है। स्त्री और पुरुष जीवत्व की अपेक्षा से एक है। जीव के शरीर रूप पुद्गल और अचित्त पुद्गल पुद्गगलत्व की अपेक्षा से एक है। ऐसे एक मान लेने से उनकी एकान्त एकता मान लेना स्पष्टतः असंगत है। हमें सोचना होगा कि एक होते हुए भी विद्युत् के विभिन्न परिणमनों में कहाँ सचित्त तेउकाय यानी जलने की क्रिया होती है और कहाँ नहीं होती? 76 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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