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कारण वायु है, इसलिए वायु को शांत करने के लिए तैलमालिश सर्वश्रेष्ठ है । जो व्यक्ति प्रतिदिन तैलमालिश करता है, वह सुन्दर त्वचा वाला, बलवान्, प्रियदर्शन और वार्द्धक्यरहित होता है
आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर तैलमालिश (अभ्यंगन ) कला का वर्णन मिलता है । ज्ञाताधर्मकथा के प्रथम अध्ययन में राजा श्रेणिक व्यायामशाला में विविध प्रकार के व्यायामों के आचरण करने से थककर बाहर निकलता है, तो उसके शरीर का शतपाक एवं सहस्रपाक आदि अनेक प्रकार के सुगन्धित तैलों से अभ्यंगन कराया जाता है सयपागसहस्सपागेहिं...........पडिनिक्खमई । अर्थात् व्यायाम के पश्चात् शतपाक तथा सहस्रपाक आदि श्रेष्ठ सुगंधित तैल आदि अभ्यंगनों से, जो प्रीति उत्पन्न करने वाले जठराग्नि को दीप्त करने वाले, दर्पणीय (शरीर का बल बढ़ाने वाले, कामवर्धक, मांसवर्धक तथा सभी इन्द्रियों एवं शरीर को आह्लादित करने वाले थे, राजा श्रेणिक ने अभ्यंगन कराया।) उसके बाद अस्थियों को सुखकारी, मांस को सुखकारी, त्वचा को सुखकारी तथा रोगों को सुखकारी, इस तरह चार प्रकार के संवाहन से राजा श्रेणिक के शरीर का मर्दन किया गया । उबटन लगाया गया। इस तैलमालिश, चतुर्विध संवाहन ( धीरे-धीरे विशेष प्रकार से शरीर दबाना) तथा उबटन आदि के द्वारा श्रेणिक का परिश्रम दूर हो गया। यहां पर न केवल अभ्यंगन एवं संवाहन का सामान्य वर्णन है बल्कि उससे होने वाले लाभ का भी सुन्दर चित्रण है । यह प्रसंग चरक, सुश्रुत आदि से तुलनीय है।
उपासकदशाध्ययन में अभ्यंगन ३२ उव्वट्टण ३, विलेपन आदि का वर्णन है । इस प्रसंग से ऐसा लगता है कि उस समय अभ्यंगनादि का प्रभूत प्रयोग होता था । आगमसाहित्य में अन्यत्र भी अनेक स्थलों पर अभ्यंगनादि का वर्णन है ।
३. उव्वट्टण
शरीर को साफ, चमकदार और आकर्षक बनाने के लिए प्राचीनकाल से ही 'उव्वट्टण ' का प्रयोग होता आया है। उबटन ( उव्वट्टण) कफहर, मेदोहर, अंगों को स्थिर करने वाला तथा त्वचा को प्रसन्न करने वाला होता है
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उद्वर्त्तनं कफहरं मेदसः प्रविलापनम् । स्थिरीकरणमङ्गानां त्वक् प्रसादकरं परम् ॥३५
आगम- साहित्य में प्रमुख प्रसाधन- द्रव्यों में इसका प्रयोग होता था । शरीर की कांति को संवर्धित करने, शरीर को सुशोभित एवं परिश्रम को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से बने उबटनविधि का प्रयोग किया जाता था । इसमें हल्दी, सरसों, चंदन, तिल, वच आदि को दूध या पानी में भिगोकर, पीसकर एवं तैल में मिलाकर शरीर पर लगाया जाता था । अनेक सुगंधित द्रव्यों का भी प्रयोग होता था । स्थानांग, ज्ञाताधर्म,
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004
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