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उपासकदशाध्ययन सूत्र में गाथापति आनन्द आठ जलघटों से स्नान करता है। वहां के प्रसंग में ऐसा पता चलता है कि उस समय अनेक प्रकार की स्नान - विधियां (मज्जनविधियां) प्रचलित थी, क्योंकि आठ घड़ों के जल से स्नान के अतिरिक्त स्नानविधियों का वह परित्याग करता है - नन्नत्थ अट्ठहिं उट्टिएहिं 'उदगस्स द्यडेहिं, अवसेसं सव्वंमज्जणविहि पच्चक्खाइ ।१९' यहां पर प्रयुक्त 'मज्जणविहि' शब्द का ज्ञाताधर्मकथा १.१.२४ तथा १.१६.१४० में भी प्रयोग है।
वहीं ज्ञाता. के सोलहवें अध्ययन में कृष्णवासुदेव के स्नान का वर्णन है। वहां भी चार प्रकार के जल से मंगलकारक स्नान का निर्देश है । २२ विपाकसूत्र में तीन प्रकार के जलउष्णोदक, शीतोदक एवं गंधोदक से स्नान का वर्णन है ।
स्नानगृह — आगम साहित्य में स्नानगृह का भी सुन्दर वर्णन मिलता है । भगवती सूत्र में 'मज्जणर २० का प्रयोग है । ज्ञाताधर्मकथा में भी मज्जनघर का वर्णन है ज्ञाताधर्मकथा में स्नानपीठ पर बैठकर चार प्रकार के जल से शुभजल, पुष्पमिश्रितजल, सुगंधमिश्रितजल और शुद्धजल से मंगलसाधक स्नान का वर्णन है ।
ण्हाणपीढंसि सुहणिसण्णे सुहोदएहिं गंधोदएहिं पुप्फोदएहिं, सुद्धोदएहिं पुणो पुणो कल्लाणग-पवर-मज्जणविहीए मज्जिए ।" वहीं अनेक स्थलों पर स्नानगृह का वर्णन है । प्रथम अध्ययन श्रेणिकराजा के उत्तम स्नानगृह का वर्णन है। सोलहवें अध्ययन में कृष्णवासुदेव और द्रौपदी के स्नानगृह का निरूपण है । राजाश्रेणिक का स्नानगृह अत्यन्त सुन्दर था । विविध प्रकार के रत्नमणियों के फर्श बने हुए थे। नाना प्रकार के मणियों से चित्रित स्नानपीठ से स्नानगृह सुशोभित था । २४ ऐसा ही वर्णन कृष्णवासुदेव के स्नानगृह का मिलता है ।२५
मज्जनधात्री
युवतियों को स्नान कराने वाले दासियों का वर्णन भी मिलता है। उन्हें मज्जनधात्री (मज्जणधाई) कहा जाता था । आचारचूला में भगवान् के पांच धाइयों में एक 'मज्जणधाई' का उल्लेख है खीरधाईए, मज्जणधाइए, ममडावणधाईए, खेल्लावणधाईए, अंकधाईए २६ ज्ञाताधर्मकथा में मेघकुमार की पंचधात्रियों में एक 'मज्जणधाई' भी है। वहीं पर सुकुमालिका के पंचधाईयों में एक 'मज्जणधाई' का वर्णन है ।२८
२. अभ्यंगन
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मालिश, लेप, तैलमालिश आदि को अभ्यंगन कहा जाता है। शरीर पर तैलमालिश से मनुष्य में बल आता है, त्वचा सुन्दर हो जाती है। जिस प्रकार घड़ा तैल या घी लगाने से मजबूत होता है और पहिए पर तैल लगाने से ठीक काम करता है, उसी प्रकार शरीर पर तैल लगाने से त्वचा दृढ़ और सुन्दर बनती है। स्पर्शन त्वचा का कार्य है, स्पर्शज्ञान का
तुलसी प्रज्ञा अंक 123
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