Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ I उपासकदशाध्ययन आदि में उव्वट्टण ( उबटन) का वर्णन है। स्थानांग में पुत्रद्वारा पिता को सुगंधित उबटन लगाने का वर्णन है । ६ ज्ञाताधर्म में अनेक स्थलों पर उबटन का उल्लेख है विवाह के पूर्व उबटन की प्रथा आज जैसे ही आगमकाल में प्रचलित थी । सुकुमालिका के मग ( दरिद्र पुरुष) के साथ पुनर्विवाह के अवसर पर दमग का शतपाक सहस्रपाक तैलों से अभ्यंगन, सुगंधित गंध - उबटन / श्रेष्ठ उबटन का लेप कर उष्णजल एवं सुगंधित जल से स्नान कराया गया था । ३७ उपासकदशाध्ययन में गंधोद्वर्तन ( सुगंधित उबटन) का वर्णन है । ३८ गाथापति आनन्द एक सुगंधित उबटन को छोड़कर अन्य उबटनविधि का परित्याग कर देता है । विपाकसूत्र में तैल- अभ्यंगन, चतुर्विध संवाहन एवं सुगंधित उबटन से लेप के अनन्तर तीन प्रकार के जल उष्णोदक, शीतोदक एवं गन्धोदक से स्नान का वर्णन है । ३९ विपाकसूत्र में अन्यत्र भी उबटन का वर्णन मिलता है। ४. संवाहन संवाहन एक प्राचीन कला है। शरीर को धीरे-धीरे एक विशिष्ट रीति से दबाना संवाहन है। इस कला में निष्णात को संवाहक कहा जाता था । मृच्छकटिक में एक श्रेष्ठ कला के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई है । संवाहक (पात्रविशेष) चारुदत्त की सेवा में नियुक्त था । चरक, सुश्रुत आदि ग्रंथों में 'संवाहन' को स्वास्थ्यप्रद कहा गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्रसाधन कार्य में निपुण व्यक्तियों के अन्तर्गत संवाहक का उल्लेख है ।" आगमसाहित्य में अनेक स्थलों पर संवाहन कला का वर्णन है । ज्ञाताधर्मकथा, विपाकसूत्र आदि में चार प्रकार के संवाहन का वर्णन है – अट्ठिसुहाए, मंससुहाए, तयासुहाए, रोमसुहाए, चउव्विहाए, संवाहणाए संवाहिए।" वस्तुत: उपर्युक्त भेद संवाहन के लाभ को इंगित करते हैं । नेत्रप्रसाधन शरीर में नेत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'नी' धातु से 'दाम्नीशसेति ४२ से करण में ष्ट्रन् प्रत्यय करने पर 'नेत्र' शब्द बनता है। नीयते नयति वानेनेति, जो ले जाता है, पथदर्शक होता है, वह नेत्र है। नेत्र की महत्ता को ध्यान में रखकर ही उसकी सुरक्षा पर अत्यधिक बल दिया जाता है। नेत्र के दो भाग होते एक काला भाग और दूसरा स्वच्छ भाग। ये दोनों भाग जितने ही स्वच्छ, चमकदार और बड़े होते हैं, उतने ही उत्तम माने जाते हैं। आंखों का सौंदर्य उनके काले और श्वेत भाग के स्पष्ट होने पर ही होता है । चरक का निर्देश है व्यक्तभागेविभागे । ३ यह काम अञ्जन और सुरमें से संभव होता है । १. अंजन आचार्य चरक ने अंजन के महत्त्व को उद्घाटित किया है ।" जिस तुलसी प्रज्ञा अंक 123 ५. 14 Jain Education International - - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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