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स्वप्नों का रहस्यमय संसार
-समणी सत्यप्रज्ञा
यथार्थ की दुनिया से हटकर भी व्यक्ति की कोई दुनिया होती है। दुनिया का सम्बन्ध तभी सहने योग्य होता है जब बीच-बीच में वह उससे अलग होता रहे और उस अलग दुनिया का एक नाम स्वप्न है। समय-समय पर विविध लोग स्वप्नों का अनुभव करते हैं और उनकी विस्तृत स्मृति भी रखते हैं। वे उत्तेजक, व्यवघातक और कुछ सामान्य पहेलीनुमा हो सकते हैं। जो भी हो, वे क्या हैं? क्या उनका कोई अर्थ होता है ? क्या वे हमारे भय और प्रेरणाओं को समझने के लिए कोई विशेष चाबी का काम करते हैं? क्या वे हमारी गहन इच्छाओं, भय, कुंठाओं को व्यक्त करते हैं, जिन्हें हम 'व्यक्तिगत चेहरा' कहते हैं ? इन्हीं सब प्रश्नों ने स्वप्नमनोविज्ञान को जन्म दिया।
स्वप्न निद्रावस्था का गतिशील अनुभव है। जब इन्द्रियाँ अपने विषय से निवृत्त होकर प्रशांत हो जाती हैं और मन इन्द्रियों में लगा रहता है तब व्यक्ति स्वप्न देखता है। यह संवेदनाओं से, अवदमित इच्छाओं से तथा मानसिक स्थितियों से रंगा होता है। इसे निद्रागत विचारों व कल्पनाओं की श्रृंखला कहा जा सकता है। हर प्राणी सोता है और यह नींद हमेशा अनेक रहस्यों से भरी दिखाई देती है। नींद के समय अवचेतन के माध्यम से स्वप्न व्यक्त होते हैं। Kleitman के अनुसार 'One dream as one think' स्वप्न प्रायः दृश्य के रूप में होते हैं। अमूर्त विचार स्वप्न में मूर्तिमान किए जाते हैं। हम जितना वास्तविक रूप में अनुभव करते हैं, स्वप्न उससे अधिक स्पष्टता से हमारे बारे में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। स्वप्नद्रष्टा ही स्वप्न का मुख्य पात्र होता है। जैसे रेडियो की तरंगें पूरे वायुमण्डल में तैरती रहती हैं, रेडियो के माध्यम से उन्हें ग्रहण कर लिया जाता है। वैसे ही स्वप्न दिन-रात हमारे मस्तिष्क में तैरते रहते हैं। जागरूकता से उन्हें ग्रहण किया जा सकता है। नींद एक क्रिया है, जिसमें व्यक्ति बाहर की दुनिया से लगभग अंधे व बहरे की तरह होकर
अन्तर्जगत में विचरण करता है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004
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