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पर चढ़ता है किन्तु कोई एक जाति विकसित होकर दूसरी जाति में नहीं बदल
जाती। उदाहरणत:अधिभूत अधिदैव
अध्यात्म भूमि (अर्थ-शक्ति) अग्नि (=तमोगुण) | | शरीर है किन्तु इन्द्रियाँ नहीं
भूमि का स्पर्श उदाहरण-पाषाण, धातु आदि सर्वाधिक) पाद-रहित
स्थावर
अन्तरिक्ष (क्रियाशक्ति)
स्थावर
वायु (=रजोगुण) | शरीर है, इन्द्रियाँ नहीं, किन्तु भमि का स्पर्श कम | अपने स्थान पर रहकर ही किन्तु भूमि छोड़ने की आहार द्वारा वृद्धि क्षमता का अभाव उदाहरण - वनस्पति, लता
आदि पादप
धुलोक (ज्ञानशक्ति)
को
(भूमि से
| आदित्य (=सत्त्वगुण) | शरीर है, इन्द्रियों का भी
प्रादुर्भाव होता है। विकास भूमि 7
का क्रम निम्न लिखित है -
1. सहस्रपाद कृमि से छोड़ने | सम्पर्क
चतुष्पाद कृमि तक | त्रस एकेन्द्रिय की क्रमशः 2. चतुष्पाद पशु से पञ्चेन्द्रिय क्षमता | कम होता 3. अर्धचतुष्पाद वानर
| जाता है) 4. द्विपाद - मनुष्य विकास
तक
का
भूमि का स्पर्श बिल्कुल नहीं
5. अपाद - देव
देव योनि | (भूमि का स्पर्श नहीं) |
पाद भूमि से ऊपर उठते-उठते भूमि के बन्धन से मुक्त होने का साधन बनते हैं। द्विपाद मनुष्य भूमि के बन्धन से ही नहीं, शरीर के बन्धन से भी मुक्त हो सकता है। शरीर के बन्धन से मुक्त होने की प्रक्रिया जैन-परम्परा में गुणस्थानों के माध्यम से तथा वैदिकपरम्परा में योगवाशिष्ठ में दी गयी भूमिकाओं के माध्यम से वर्णित है, किन्तु वह प्रस्तुत लेख का विषय नहीं है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 123
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