Book Title: Tulsi Prajna 2004 01
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ देवसर्ग - यद्यपि मनुष्य में पशु-पक्षियों की अपेक्षा बहुत अधिक ज्ञान है तथापि वह भी मूलतः रजोगुण प्रधान ही है। अपने दो पाँव के माध्यम से अभी भी वह भूमि से जुड़ा है किन्तु जीव का एक और विकसित रूप भी है जिसे देवसर्ग कहा जाता है। जीव अपने इस स्वरूप में भूमि को बिल्कुल नहीं छूता। इसलिए देवताओं के पदचिह्न नहीं बनते। इन्द्रियों की दृष्टि से जहाँ मनुष्य में पाँच कर्मेन्द्रियां, पाँच ज्ञानेन्द्रियां और एक मन मिलाकर ग्यारह इन्द्रियाँ हैं, वहां देव योनि में आठ सिद्धियाँ और नौ तुष्टियाँ मिलाकर अट्ठाइस इन्द्रियाँ मानी जाती हैं। यह देव सर्ग प्रत्यक्ष नहीं है। इसलिए इसकी चर्चा हम नहीं कर रहे हैं। निष्कर्ष - अभी तक जो हमने कहा, उसके मूल में जाएं तो पता चलेगा कि जैन परम्परा और वैदिक परम्परा में जीवों के वर्गीकरण की पद्धति तो भिन्न है किन्तु उन दोनों की मूलभूत मान्यताएँ एक जैसी हैं।। 1. हम कह सकते हैं कि दोनों ही परम्परायें पाषाण और धातुओं को सजीव मानती हैं। 2. दोनों ही परम्पराएं जीव के विकास का आधार ज्ञान का विकास मानती हैं किन्तु जैन परम्परा में ज्ञान के विकास का आधार ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है जबकि वैदिक परम्परा में ज्ञान के विकास का आधार तमोगुण की न्यूनता और सत्त्वगुण का आधिक्य है। 3. दोनों परम्परायें मानती हैं कि ज्ञान के विकास के साथ शारीरिक विकास भी होता है। जैन परम्परा के अनुसार यह शारीरिक विकास इन्द्रियों की संख्या की अभिवृद्धि के आधार पर होता है जबकि वैदिक परम्परा के अनुसार इस विकास का आधार यह है कि जीव का शरीर भूमि के बन्धन से कितना अधिक मुक्त हो जाता है। 4. दोनों परम्परायें इस विषय में सहमत हैं कि मनुष्य के अतिरिक्त कुछ ऐसी जीव योनियाँ भी हैं, जो हमें दिखाई नहीं देती और उन योनियों में जीव के पास मनुष्य से भी अधिक अलौकिक शक्तियाँ होती हैं। 5. दोनों परम्परायें इस विषय में सहमत हैं कि देव-योनि की प्राप्ति जीव का अन्तिम लक्ष्य नहीं, क्योंकि वहां कर्म, त्रिगुण और शरीर शेष है। इसलिये वहाँ का सुख भी सान्त ही है, अनन्त नहीं। अनन्त सुख तो कर्मातीत, त्रिगुणातीत और देहातीत अवस्था में है। 6. दोनों परम्परायें इस विषय में भी सहमत हैं कि जीव मनुष्य शरीर में ही रहकर इस मुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकता है। 7. दोनों परम्परायें मानती हैं कि एक-एक जीव अपने पुरुषार्थ से विकास के सोपान तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004 - - 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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