________________
एषणीय, अनंषणीय, ग्रहणीय, अग्रहणीय वस्त्रों का पूरा-पूरा ब्यौरा है । जिस परम्परा ने आचार्य कुन्दकुन्द को आगम पुरुष व प्रामाणिक पुरुष माना, उन्होंने भी अपने प्रवचन सारोद्धार' में प्रतिलेखन प्रसंग में संख्या व्युत्क्रम से उन्हीं वस्त्रों का उल्लेख किया है । जिनका ओघनियुक्तिकार ने किया है।
"ग्रामोनास्ति कुतः सीमा" वस्त्र रखना ही नहीं, तर याचना का प्रश्न ही क्यों ? एषणीय अनैषणीय का विधान ही क्यों ? कौन से वस्त्र साधुओं के लिए कल्पनीय हैं और कौन से अकल्पनीय ? यह चर्चा ही क्यों ? चर्चित प्रश्नों के आधार पर यह स्पष्ट है कि श्रमणों को वस्त्र रखना है और निश्चित रूप से रखना है।
स्थानाङ्ग में वस्त्र रखने के तीन हेतु बतलाये हैं(१) लज्जा निवारण (२) घृणा निवारण और (३) परीषह (शीतादि के बचाव के लिए) प्रश्न व्याकरण प्रथम संवर द्वार में(१) संयम के उपग्रह और
(२) वात, आतप, दंश, मच्छर के बचाव के लिए उपधि रखने का विधान किया है। . श्रुतधर आचार्य शय्यंभव ने भी इन्हीं दो प्रयोजनों को परिपुष्ट करते हुए लिखा है-भगवान् महावीर ने जहां मूर्छा है, वहां परिग्रह की नियामकता बतलाई है किन्तु परिग्रह है वहां मूर्छा की नियामकता नहीं। संयम निमित्त और लज्जा निमित्त वस्त्रोपकरणों को रखा जाता है । उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं।
जंपि वत्थं व पायं व, कंबलं पाय पुंछणं । तंपि संजम लज्जट्ठा, धारंति परिहंतिय ।।
नसो परिग्गहो बुत्तो......" 'छक्काय रक्खणट्ठा' कहकर ओपनियुक्ति के उपर्युक्त प्रयोजनों को स्वीकारते हुए साधनोचित समस्त भण्डोपकरणों का विधान किया है जो इस प्रकार है----
उपधि-जिसको सामीप्य से धारण किया जाता है। उपकरण--जो उपकृत करता है।" शिष्य ने कहा--क्या धारण किया जाता है ? आचार्य ने कहा-द्रव्य से शरीरोपकरणादि और भाव से ज्ञानदर्शनादि । उपधि के दो प्रकार हैं(१) ओघ उपधि (२) औपग्रहिक उपधि
तुमसी प्रमा
२४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org