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वस्तु की प्राप्ति की इच्छा और विश्वास से है। इसीलिए यदि विषयों से मन को रोकना है तो ममत्व को समाप्त करना चाहिए । इसी में शांति है।
शान्ति के उपर्युक्त पांचों अर्थ नकारात्मक अर्थ हैं । ये बताते हैं कि शांति क्या नहीं है । अथवा वह किन-किन विषयों से मुक्ति है । और स्वयं मुक्ति के अर्थ में यह मोक्ष की वह अवस्था हैं जो जन्म-मरण, सुख-दुःख इत्यादि द्वैतों से परे है। किन्तु शान्ति का एक धनात्मक पक्ष भी है, और वह है चैन या आराम । जब हम शान्ति का अर्थ 'चैन' से लेते हैं तो यह चैन स्वयं मनुष्य का चैन है कि वह स्वयं अपने साथ, पशुओं के साथ और अपने समाज के साथ किस प्रकार आराम से, शान्ति से रहे । जैन दर्शन में शान्ति के इन पक्षों पर भी, इनका स्पष्ट नाम लिए बिना ही, काफो विचार किया गया है। स्वयं अपने साथ शान्ति
व्यक्ति स्वयं अपने आप से ही अशांत रहता है। इसे सभी अनुभव करते हैं। प्रत्येक मनुष्य में एक प्रकार का द्वंद्व या संघर्ष सदैव चलता रहता हैं और इसका कारण मनुष्य द्वारा स्वयं को ठीक-ठीक न पहचान पाना है। मनुष्य का वास्तविक स्वरूप क्या है ? मनुष्य का वास्तविक स्वरूप उसकी आत्मा है और आत्मा का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान महावीर और गौतम के बीच हुए एक संवाद में मिलता है । गौतम पूछते हैं, भगवन् ! आत्मा क्या है ? और आत्मा का साध्य क्या है ? महावीर उत्तर देते हैं कि गौतम ! आत्मा का स्वरूप 'ममत्व' है और समत्व को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।
दूसरे शब्दों में कहें तो समता या समभाव ही मनुष्य का, आत्मा रूप में, स्वभाव है और विषमता विभाव है। आत्मा जब अपने स्वभाव में रहती है तभी शान्त रह सकती है । 'पर, से जुड़कर वह शांत नहीं रह सकती । समता का अर्थ है अपने मूल स्वभाव में विकृति न आने देना । सदैव स्वभाव में स्थित रहना । आचार्य हेमचन्द्र सूरी ने कहा --'आदीपमाव्योम समत्व भावं !' जैन दर्शन में वस्तुतः शान्ति से आशय समत्व से ही है । डा. सागरमल जैन लिखते हैं कि जैन दर्शन में मानसिक प्रशान्ति को ही शान्ति माना गया है और इसीलिए शान्ति और समचित्तता अथवा कहे, 'समत्व', को समानार्थक समझा गया है । शान्ति का अर्थ मानसिक और सामाजिक 'समत्व' है । जब मानसिक प्रशान्ति विचलित हो जाती है तो आन्तरिक शांति भी भंग हो जाती है। जैन धार्मिक आचरण मानसिक और सामाजिक समत्व के अभ्यास के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इसीलिए जैन साहित्य की प्राकृत भाषा में 'समिअ' शब्द का प्रयोग किया गया है । 'समिअ' जैन दर्शन की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है । यह वह धुरी है जिसके चारों ओर जैन दर्शन घूमता है। 'समिअ' के संदर्भानुसार . अनेक अर्थ हैं--प्रशान्ति, सम्यक् स्थिति, शुभ, समता या समत्व आदि । ५
___आत्मा स्वयं अपने मे अवस्थित होकर ही शान्ति और चैन पा सकती है। इसके लिए 'पर' से विरत होना होगा । विषमताओं से बचना होगा और समत्व से जुड़ना होगा । दुःख-सुख, क्रोधादि कषाय, विषय भोग, इत्यादि सभी आत्मा के 'स्व' न खंड २१, अंक ३
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