________________
वर्तमान का कोई भेद नहीं है । पतंजलि ने इन दोनों शंकाओं का उत्तर दिया है कि देवदत्त नामक व्यक्ति भोजन करते हुए भी तो पानी पीता है, बातचीत भी करता है । उस क्षण में भक्षण क्रिया की वर्तमानकालना समाप्त हो जाती है पुनरपि 'भुङक्ते देवदत्तः' प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार 'इह याजयामः' आदि प्रयोग भी सिद्ध हो जायेंगे क्योंकि वहां भी वर्तमानकालता है। पतंजलि वर्तमान की परिभाषा देते हैं कि जबसे क्रिया प्रारम्भ की गयी है जब तक वह पूर्ण विराम को प्राप्त न हो, तब तक वर्तमान काल ही कहलायेगा, भले ही यह काल कितना ही दीर्घ क्यों न हो।" भर्तृहरि ने इस प्रसङ्ग को वाक्यपदीय में पतंजलि के अनुसार ही तीन श्लोकों में प्रकट किया है।
यद्यपि भर्तृहरि काल को एक अखण्डात्मक इकाई ही स्वीकार करते हैं तथापि वे लोक व्यवहार की दृष्टि से इसके भूत, भविष्य तथा वर्तमान के रूप में क्रियाकृत तीन भेद मानते हैं । परमार्थतः काल एक ही है ।१६ क्रिया की समाप्ति पर भूतकाल कह दिया जाता है। सम्भावित क्रिया को दृष्टि में रखकर भविष्यत् काल कहा जाता है तथा प्रवाहरूप में वर्तमान क्रिया के कारण उस काल को भी वर्तमान कह दिया जाता है भले ही क्रिया का वह प्रवाह एक क्षण से लेकर सुदीर्घकाल तक ही क्यों न हो । यद्यपि काल एक ही है तथापि भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान के रूप में उसकी तीन प्रकार की शक्तियां हैं। इन शक्तियों के आधार ही पदार्थों के जन्म तथा विनाश होते हैं । वस्तुत: ये जन्म तथा विनाश विद्यमान पदार्थों के ही काल की इन्हीं शक्तियों के कारण आविर्भाव तथा तिरोभाव ही है।" ___इस प्रकार काल के अखण्ड प्रवाह को स्वीकार करके भी भर्तृहरि भावों के दर्शन तथा अदर्शन भेद से बुद्धि सीमा में गृहीत तथा अगृहीत काल को ही भूत, भविष्य तथा वर्तमान के रूप में विभक्त करते हैं। अदर्शन की दृष्टि से भूत तथा वर्तमान में भी बहुत अधिक अन्तर नहीं है। ये दोनों समान महत्त्व रखते हैं । ये दोनों ही अदृष्ट हैं। जो वर्तमान की दृष्ट स्थिति से पहले था, उसे अतीत कह दिया जाता है तथा जो वर्तमान दृष्टि से परे स्थित है उसे ही भविष्य कह दिया जाता है। भर्तृहरि कहते हैं कि इसी आधार पर कुछ लोग भूत तथा भविष्य में अन्तर ही नहीं मानते ।" क्योंकि अदर्शन की दृष्टि से दोनों समान हैं। भर्तृहरि भी जानते हैं कि दार्शनिक दृष्टि से भूत तथा भविष्य में अधिक अन्तर नहीं किया जा सकता पुनरपि इन दोनों में सूक्ष्म सा अन्तर वे खोज ही लेते हैं। प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा इसी अन्तर को प्रकट करते हैं। उनके अनुसार अनागत उस काल शक्ति का नाम है जो जन्म होने • की क्रिया में प्रतिवन्ध या वाधा बनकर नहीं आती अपितु वह उसके साथ ही रहती है इसके विपरीत अतीत या भूत के रहने पर किसी वस्तु के जन्म की सम्भावना भी नहीं की जा सकती।" इस प्रकार अखण्ड काल का भूत, भविष्य तथा वर्तमान के रूप में वैविध्य भर्तृहरि को स्वीकृत है ।
इतना ही नहीं अपितु भर्तृहरि भूत, भविष्य तथा वर्तमान के अवान्तर विभाग भी कहते हैं । उन्होंने भूत को पांच प्रकार का, भविष्य को चार प्रकार का तथा चंड २१, अंक ३
२६९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org