________________
लीलाओं का, यौवन की मनोहारिणी छटा का, तथा असुरों के दर्प को चूर्ण करने वाले ईश्वरत्व रूप का जिस कमनीयता के साथ निरूपण हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । भगवद्गीता में श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं । संसार की समस्त विभूतियां इन्हीं में समाहित हैं । इस प्रकार गीता के कृष्ण दार्शनिक चिन्तन के विषय बन गए हैं । श्रीमद्भागवतकार ने कृष्ण के सम्पूर्ण स्वरूपों को एक ही सूत्र में अनुस्यूत करने का प्रयास किया है । सहृदय भक्तों के जीवित स्वरूप रसिकेश्वर कृष्ण की मनोहारिणी लीलाएं इसी ग्रन्थ में प्रस्फुटित हुई हैं । इसमें कृष्ण चरित के दिव्य एवं मांगलिक रूपों के साथ-साथ माधुर्य भाव भी अभिव्यक्त हुआ है । श्रीमद्भागवत की रचना कृष्ण के दार्शनिक पक्ष को समुद्भासित करने मात्र तक सीमित नहीं हैं, अपितु इसका मुख्य उद्देश्य भक्तिरस का पूर्ण परिपाक होना ही है । यही कारण है कि भागवतकार कृष्ण की लीलाओं में अत्यधिक तल्लीन हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यास का हृदय स्वयं द्रवीभूत होकर छन्दोमयी वाणी के रूप में प्रस्फुटित हुआ । विरह वेदना से युक्त गोपियों के गीतों में जिस अन्तरात्मा की वेदना है, वह भक्तिरस का चूर्णान्त निदर्शन है ।
श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण के जन्म और कर्म की दिव्यता का यथार्थ चित्रण किया गया है । व्यास ने श्रीकृष्ण को विश्व के पूर्णावतार के रूप में प्रतिष्ठित करने का स्तुत्य प्रयास किया है । विष्णु के समस्त अवतारों में जो आकर्षण कृष्णावतार में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है | सम्पूर्ण भारतीय दर्शन एवं संस्कृति का यह सन्देश है कि समन्वय के लिए विषय गुणों का होना आवश्यक है । भागवतकार श्रीकृष्ण को परम योगेश्वर के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं । सात दिनों के अल्पकालिक काल में मुक्ति प्रदान करने की क्षमता इन्हीं में है । ज्ञान, वैराग्य के ये निकेतन हैं । कृष्ण समस्त लोक के आदि कारण हैं । कृष्ण अपनी लीला से संसार का सृजन, पालन एवं संहार करते रहते हैं । किन्तु वे इसमें लिप्त नहीं होते । इसी कारण इस उदात्त चरित को जो श्लाघनीय, कल्याणकारी एवं आत्मज्ञान हेतु सर्वश्रेष्ठ उपायभूत है, उसका प्रणयन वेदव्यास ने किया है । इसमें कृष्ण के उन समस्त चरित्रों को प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है जिसमें भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य की त्रिवेणी प्रवाहमान होती है । भक्तजन कृष्ण के सौन्दर्य जनित माधुर्य से परिपूर्ण छवि के अवलोकन हेतु निरन्तर उत्सुक रहते हैं । इनका रूप वर्षाकालीन मेघ के समान स्निग्ध, श्याम एवं सम्पूर्ण सौन्दर्य का आगार है । भुजाएं मनोहारिणी हैं, नेत्र पंक्तियां कमलदल के समान निरन्तर भक्तजनों को स्नेह से स्निग्ध करने वाली हैं इस प्रकार की रूपमाधुरी का ध्यान त्रिविध तापहारी एवं सम्पूर्ण भयों का समुन्मूलन करने वाला है । इनकी देहप्रभा आभूषणों से सुशोभित है । कौस्तुभमणि इनका परमप्रिय आभूषण है । अलौकिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित होता हुआ भक्तवत्सल श्रीकृष्णचन्द्र का निरतिशय मनमोहक रूप भक्तजनों के लिए निरन्तर स्मरणीय स्वरूप को प्राप्त करता रहता है । इनकी यह रूप माधुरी एक बार जिस हृदय में प्रविष्ट हो गई, वहां सम्पूर्ण कामनाओं को नष्ट करती हुई पारलौकिक आनन्द की असीम स्थिति उत्पन्न कर देती है ।
श्रीकृष्ण को भागवतकार परब्रह्म स्वरूप एवं आदि पुरुष परमेश्वर की उपाधियों
費
तुलसी प्रशा
३२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org