________________
संगीत सम्बन्धी एक रहस्यमय पद
9 डॉ० जयचन्द्र शर्मा
एक सज्जन ने जैनागम में सप्त-स्वरों विषयक गाथाओं के संदर्भ में संगीत सम्बन्धी एक पद जानकारी हेतु मुझे लिखा और पूछा --संगीत की दृष्टि से क्या यह ठीक है ! पद की शब्दावली निम्न प्रकार है :
सामा गायइ मधुरं कालो गायइ खरंच रुक्खं च । गोरी गायइ चाउरं काणाय विलंवियं दुतं अन्धा
विस्सरं पुण पिंगला। उपर्युक्त पद में जिस प्रकार गायक अथवा गायिका की शारीरिक स्थिति, आंगिक विकलता एवं सकलता के अनुसार गायन एवं लय का वर्णन किया है, वह सही नहीं है। मानव की शारीरिक स्थिति से गायन-कला का कोई सम्बन्ध नहीं होता । पद-रचयिता ने इसमें गूढ़-रहस्य की बात कही है, जो सामान्य व्यक्ति की समझ में नहीं आ सकती !
इस सम्बन्ध में मैंने जैन समाज की अनेक संस्थाओं, विद्वानों आदि से सम्पर्क स्थापित किया किन्तु मुझे सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला किन्तु एक पत्र डॉ० परमेश्वर सोलंकी का जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्राप्त हुआ।
उक्त पत्र में उन्होंने लिखा
"आपने सामा गायइ मधुरं-आदि जो गाथा लिखी है, वह अनुयोगद्वारजैन (श्वेताम्बर) आगम की गाथा है, जो सात स्वरों के कथन-प्रसंग में कही गई है । आचार्य महाप्रज्ञ ने इसका मूल पाठ इस प्रकार दिया है
(क्रमांक-३०७ की गाथा-१२) केसी गायइ मधुरं । केसी गायइ खरंच रुक्खंच । केसी गायइ चउरं। केसी य विलंबियं। दुतं केसी।
विस्तरं पुण के रिसी। बण्ड २१, अंक ३
३४१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org