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यह पाठ "नव सुताणि" में पृष्ठ ३४६ पर है । इसके अलावा अन्य प्रकाशनों में भी यही पाठ है किन्तु वह शुद्ध नहीं है ।
यह कौन स्त्री कैसा गाती है का उत्तर है, प्रश्नोत्तर है ।"
उपर्युक्त प्रश्नोत्तर से हमारी शंका का समाधान एक प्रकार से हो जाता है किन्तु संगीत कला की गहराई में गोता लगाने पर अन्य जानकारी भी मिलती है, जो आध्यात्मिक भाव की ओर संकेत करती है ।
हमारे देश के संतों, महात्माओं एवं विद्वानों ने रहस्यमय शब्दावली का प्रयोग किया है, जिनका अर्थ कबीर के पदों की शब्दावली का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति के "नाव में नदियां डूबी जाय" आदि उलटवांसी ।
अपनी रचनाओं में कुछ ऐसी सहज में समझना कठिन है । समझ में नहीं आ सकता जैसे
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अमर कलाकार तानसेन ने एक ध्रपद में "सप्त प्रकट सप्त गुप्त स्वर" का उल्लेख किया है । सप्त प्रकट स्वरों की बात तो समझ में आती है परन्तु सप्त गुप्त स्वरों का रहस्य समझ में नहीं आ पाता । इस विषय को संगीत कला के महान् विद्वान् स्व. आचार्य श्री कैलाश चंद्र वृहस्पतिजी ने मूर्च्छना पद्धति के आधार पर प्रस्तुत किया था परन्तु इसे वे भी पूर्णतया स्पष्ट नहीं कर पाये ।
संगीत सम्बन्धी अनेक गीत व पद हैं जिनका सम्बन्ध आत्मा और परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ है । इन्हीं भावों को ध्यान में रखकर जैनागम के उक्त पद पर विचार करें तो उन पंक्तियों का अर्थ निम्न प्रकार हो सकता है
पद की प्रथम पंक्ति में "सामा गायइ" शब्द है । है । यह हमारी शुद्ध व सात्विक गुणों वाली आत्मा है, ध्येय से मधुर स्वरों में गुणगान करती है ।
द्वितीय पंक्ति में "काली" शब्द का प्रयोग कलुषित है, जो रुखे स्वभाव से सम्बन्धित है । अपने स्वभावानुसार ही वह गाती है ।
यहां "सामा" कोई स्त्री नहीं
जो प्रभु को प्राप्त करने के
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आगे की पंक्ति में "गोरी गायइ चतुरं" का अर्थ है गोरी अर्थात् ज्ञानवान आत्मा चतुराई से सोच-समझ कर गाती है ।
आत्मा के लिए किया गया
चंचलता नहीं है । चंचल गति
चतुर्थ पंक्ति में विलंबित लय में गाने वाली को कांणी (एक आंख वाली) नाम से सम्बोधित किया गया है । अर्थात् जो संसार को एक नजर से देखे, ऐसी आत्मा धै पूर्वक धीरे-धीरे विलंबित लय में गाती है । उसमें ( द्रुत लय) में अज्ञानी (अन्धी) आत्मा गाती है । अन्त में " पिंगला को बेसुरा गाने वाली कहा है | पिंगला हमारे शरीर में एक नाड़ी है तथा पिंगला का अर्थ पीत वर्ग से भी है। गायन कला का इन दोनों अर्थों से सम्बन्ध नहीं है । पिंगला का अर्थ है सर्पिणी । सर्पिणी की चाल टेढ़ी होती है । जहरीली फुंकार वाली सर्पिणी का दृष्टान्त देकर अपने भावों को पद रचयिता ने व्यक्त किया है । ऐसी आत्मा के स्वर मधुर कैसे हो सकते हैं ? वह तो हर समय बेसुरी राग ही आलापेगी ।
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तुलसी प्रशा
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