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प्रत्येक जीवात्मा को मैं चैतन्य देव हं, मैं प्रबुद्ध हं-सदा जागृत हं, मैं विज्ञाता हूं- दृष्टा हूं, मैं सुज्ञ हूं. संवेदनशील हूं, समदर्शी हूं--- ज्योतिर्मय हूं, मैं पराक्रमी हूं-पुरुषार्थी हूं, मैं परमप्रतापी हूं-सर्वशक्तिमान हूं, मैं ज्ञानपुंज हूं-समत्व योगी हूं और मैं शुद्ध बुद्ध निरंजन हूं-इन नव उत्प्रेरक सूत्रों से संबोधित किया गया है जिससे उसमें निजत्व का भाव समाविष्ट हो, आत्म-पराक्रम का विस्फोट हो और वह अपने स्वभाव में स्थिर हो जाए।
समीक्षण का तात्पर्य संपादक ने सम्यक् रीति से अथवा समतापूर्वक निरीक्षण लिया है । चिन्तन, आदर्श में स्थिरता, अहंभाव का विसर्जन, एकावधानता, श्वासानु- . संधान और प्रबलतम शक्ति संकल्प द्वारा उसने आत्मरमण की अवस्था की कल्पना की है। उसका कहना कि पहले सम्यक् दृष्टि होती है, फिर गुण दृष्टि बनकर ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के विभिन्न सोपानों पर आरूढ़ होती है और अन्त में समता दृष्टि बनकर सर्व जगहितकारिणी हो जाती है।
सर्वांश में समता की यह जय यात्रा डॉ० भानीराम वर्मा 'अग्निमुख' के शब्दों में मानव समाज को सावधान करने वाली है और अध्यात्म पथ के पथिकों के लिए एक सक्षम मार्ग दर्शक एवं पथ-बन्धु बन गयी है । इसलिए शुद्ध जैन-दर्शन एवं साधना के सूत्रों का संक्षिप्त एवं सुगम सार सत्व है। १२. सागर मन्थन (आचार्य विद्यासागर के प्रवचनों का संग्रह)-प्रकाशक : श्रीमती
पुष्पादेवी पुत्रवधु श्रीमती दर्शनमाला जैन, जैन गली, हिसार । सन् १९९५ । मूल्य-चिन्तन-मनन । . सन् १९९५ के ग्रीष्मकालीन प्रवास में आर्यिका दृढ़मति माताजी ने पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के प्रवचनों का संकलन किया और रज कण प्रकाशन, टीकमगढ़; ज्ञानोदय प्रकाशन, पिसनहारी; मुनि संघ साहित्य प्रकाशन समिति, सागर; श्री दिगम्बर जैन मुनि संघ समिति, गंजबासौदा आदि से प्रकाशित प्रवचनों में से भी कुछ प्रवचन लिये और श्री दिगम्बर जैन समाज, हिसार के प्रधान एडवोकेट जयप्रसाद जैन को दे दिये। फलतः यह अमूल्य प्रकाशन संभव हुआ ।।
वीतरागी संत विद्यासागरजी सन् १९६७ में मदनगंज (अजमेर) में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के पास पहुंचे थे और अपनी अप्रतिम योग्यता के कारण योग्य गुरु के योग्य शिष्य के रूप में विद्याधर से विद्यासागर बनकर सन् १९७२ में आचार्य ज्ञानसागर के उत्तराधिकारी आचार्य बन गये । कन्नड़ भाषी होने पर भी आपने संस्कृत और हिन्दी भाषाओं पर असाधारण अधिकार पाया है और कालजयी रचनाओं का सृजन किया है । 'मूकमाटी' आपका विलक्षण काव्य है। संस्कृत भाषा में निबद्ध पांच शतक और हिन्दी भाषा में लिखित व अनूदित विशाल साहित्य है।
__ प्रस्तुत संग्रह में १९ प्रवचन और अमृत, पीयूष, पंचामृत, आस्था से संस्था और दोहा दोहन --- शीर्षकों से कुछ संपादित प्रवचन- अंशों का प्रकाशन किया गया है। २३२ पृष्ठों में प्रकाशित १९ प्रवचन भी सुसंपादित हैं। वस्तुत: विद्यासागरजी 'यथानाम तथा गुण' के अनुकूल शब्द सागर को मन्थन करने में माहिर हैं और उसे
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तुलसी प्रज्ञा
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