Book Title: Tulsi Prajna 1995 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 122
________________ . महत्त्वपूर्ण है । इनमें एकास्थिक वर्ग की ३२, बहुबीजक ३३, गुच्छ ५३, गुल्म २५, लता ( एक शाखवाली) १०, वल्ली ४८, पर्वक २१, तृण २३, हरित ३०, वलय १७, धान्य २६, जलरूह २७, कुहण (भू स्फोट ) ११, साधारण शरीर ( एक साथ प्राण अपान छोड़ने वाली ) ६० और प्रकीर्णक ५ मिलकर ४२१ प्रयोग - संदर्भ अकेले प्रज्ञापनासूत्र के हैं। शेष २९ दूसरे आगमों में मिले अतिरिक्त नाम हैं । उनमें सूर्य प्रज्ञप्ति आदि में वर्णित नक्षत्रों की भोग्य वनस्पतियां भी शामिल हैं । नक्षत्र भोग्य वनस्पतियों में १४ नाम मांसपरक हैं । ( स्मरणीय है कि इन मांसपरक नामों को जैनागमों में प्रयुक्त देखकर सुप्रसिद्ध जैन शास्त्र मनीषी डॉ० हर्मन जैकोबी परेशान हो गया था और इस संबंध में शंका निवारणार्थ वह मार्च, सन् १९१४ में यहां लाडनूं आया था और उसने तेरापंथ महासंघ के अष्टम आचार्य पूज्य कालगणि से तत्संबंधी सटीक समाधान पाकर संतोष व्यक्त किया था ।) मुनि श्रीचंद ने पहचान में शेष रहे नामों में पाणि (बेल), और सुव वनस्पतियों की पहचान भी करली है किन्तु काय, कुण्णक, त्थिहु, दंतमाला, परिली, पुलयह, पोक्खलत्थिभय, बाणगुल्म, भाणी, वल - मेरुताल - मेरुतालवण - मेरुपालवण, बंसाणिय, वट्टमाल, विभगु - विहंगु, बोडाण - वोयाण, सिंगमाला, सिस्सरिली, सुभग, सेरुताल, हिरिणी -- इत्यादि अनेकों वनस्पतियों की पहचान अभी भी की जानी शेष है। इसके अलावा यद्यपि मुनिश्री ने आगम-शब्दों को यथातथा रखकर उनके तत्सम संस्कृत अथवा संस्कृतेतर शब्द, पर्यायवाची, हिन्दी अर्थ और अर्थवाचक तथा वनस्पतियों के चित्रादि देकर विमर्शपूर्वक चिंतन से पहचान को सहज बना दिया है; फिर भी उनकी पहचान को संदेह से परे नहीं माना जाना चाहिए और इस संबंध में वनस्पतिवेत्ताओं को चिन्तन-मनन करके इस अमोल खजाने के सदुपयोग हेतु बहुविध प्रयास किये जाने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए । कहना न होगा, यह जैनागम वनस्पतिकोश प्रत्येक देशी चिकित्सक और अन्य चिकित्स्य अधिकारीगण एवं औषधि निर्माण कर्तृ संस्थाओं के पास होना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावः - उक्ति के अनुसार न जाने कब, कौन औषध क्या / किस शुभ कर्म में सहयोगी बन जाय । मुनि श्रीचंद 'कमल' ने तो यह कार्य अपने कर्तृत्व के भावना से किया है किन्तु जैन विश्व भारती, लाडनूं के प्रकाशित कर सर्व सुलभ बना दिया इसलिए उन्हें जितना कम है । दहिवण्ण, महुसिगी छतोव - छतोवग, भेरुताल --- भेरु Jain Education International २. जैन योग के सात ग्रन्थ- अनुवादक मुनिश्री दुलहराज । प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूं । प्रथम संस्करण- १९९५ । मूल्य - बीस रुपये । I 'जैन आचार्यों द्वारा रचा हुआ योग का विशाल साहित्य है । मुनि दुलहराजजी ने उसमें से कुछेक कृतियों को चुनकर अध्यात्म विद्या में रुचि रखने वालों के सामने खण्ड २१, अंक ३ For Private & Personal Use Only अनुरूप लोक कल्याण पदाधिकारियों ने इसे साधुवाद दिया जाए ३४७ www.jainelibrary.org

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