Book Title: Tulsi Prajna 1995 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 108
________________ 'सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः अपने पति के प्राणरक्षणार्थ नागपत्लियां भगवान् श्री कृष्ण चरणों की शरणागति ग्रहण करती हैं । गोपियां सम्पूर्ण संसार - भाई - बाप पति-पुत्र, धन दौलत आदि सबका परित्याग कर प्रभु चरणों की अनन्य शरणागति स्वीकार करती है ।" पितामह भीष्म संसार से वितृष्ण होकर प्रभु चरणों में ही सदा सर्वदा के लिए स्थित हो गए ।" राजा अम्बरीष प्रभुशरणागति से ही मुक्त हो गए ।" शरणागति के द्वारा भक्त अपना सबकुछ समर्पित कर निश्चिन्त हो जाता है और स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण ही उसके योग-क्षेम का वहन करते हैं । २८ (घ) स्तुति - श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में विविध अवसरों पर भक्तों के द्वारा अपने उपास्य के चरणों में स्तुत्यांजलियां समर्पित की गई हैं। ये स्तुतियां मुख्यतः दो प्रकार की हैं - सकाम और निष्काम । निष्काम स्तुतियां दो प्रकार की हैं : -- १. साधन प्रधान और २. तत्त्वज्ञान प्रधान । साधन प्रधान स्तुतियों में प्रभु चरण रज की प्राप्ति की प्रधानता रहती है ।" तत्त्वज्ञान प्रधान स्तुतियों में स्तुति करते-करते भक्त अपना स्वरूप स्तुत्य में ही समर्पित कर स्तुत्य रूप हो जाता है ।' * सकाम स्तुतियां किसी कामना, इच्छा या सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए की गई हैं । ये अनेक प्रकार की हैं - (i) भवबन्धन से मुक्ति के लिए (ii) कष्ट से त्राण के लिए, (iii) रोग से मुक्ति के लिए (iv) संसारिक अभ्युदय पुत्र, पति, धन, साम्राज्य आदि की प्राप्ति के लिए । उपरोक्त विवेचित सभी प्रकार की स्तुतियां भागवतीय आख्यानों में प्राप्त होती हैं । (ङ) दर्शन - श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में दर्शन के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन हुआ है । भागवत के प्रथम मंगल श्लोक में ही उसमें विवेचित दर्शन का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है । भागवतकार वैसे सत्य स्वरूप प्रभु का ध्यान करता है --- 'सत्यं परं धीमहि जो सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, सर्वव्यापक, स्वयंप्रकाश, चेतन, अनन्त तथा ज्ञानस्वरूप है । वही जगत् की सृष्टि, स्थिति एवं लय का आधार है । भागवत में विवेचित दार्शनिक तत्त्वों- जीव, ईश्वर, माया, संसार आदि का स्वरूप इस प्रकार है : (i) जीव जीव भगवान् द्वारा शासित होता है । वह अल्पसत्त्व, मरणधर्मा तथा कर्मफलों का भोक्ता होता है । वह देह गेह में फंसकर अपने प्रकृत स्वरूप को विस्मृत कर देता है । भगवान् सबसे रहित अमृत स्वरूप एवं आनन्दमय हैं । भगवान् नियामक और जीव नियम्य है । जीव मायापाश में निबद्ध एवं भगरहित है । माया पाश में बंधा हुआ वह संसृत्ति चक्र में बार-बार भटकता रहता है । वह भगच्छरणागति के द्वारा संसार से मुक्त होकर प्रभु के अभय पद को प्राप्त कर लेता है । (ii) माया -कपिलाख्यान में माया का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । खण्ड २१, अंक ३ ३३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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