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लगी हैं। भर्तृहरि इसे इस रूप में कहते हैं कि यदि काल अपनी इन दोनों शक्तियों के द्वारा पदार्थों को नियन्त्रित न करे तो उत्पत्ति में पौर्वापर्य नहीं रह पायेगा जिससे बीज में से अंकुर, नाल, फूल, फल आदि एक ही साथ उत्पन्न हो जाने चाहिए। ऐसा नहीं होता, क्योंकि काल ने प्रतिवन्धक नामक शक्ति के द्वारा उन्हें रोका हुआ है। यह प्रतिवन्ध स्थायी नहीं है अतः अभ्यनुज्ञा नामक शक्ति के द्वारा वे उससे जन्म भी लेते हैं । भर्तृहरि कहते हैं कि इसलिए किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश में काल को ही कारण मानना चाहिए।" हेलाराज ने यहां पर उदाहरण दिया है कि कुछ वनस्पतियां वसन्त में उत्पन्न होती हैं तो कुछ शरद् काल में। इनका निमित्त काल ही है।
प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के रूप में इन विभागों के रहने पर भी काल के स्वरूप में अन्तर नहीं आता वह तो कालिक दृष्टि से अखण्ड ही रहता है। इन दोनों शक्तियों को स्वीकार करके काल के निरन्तर प्रवाह में अवयव, क्रम, विभाग आदि का आभास उसी प्रकार होने लगता है जैसे अखण्ड शरीर के अवयवों में पार्थक्य का आभास । इस प्रकार प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के द्वारा विभक्त दिखलाई देने पर भी काल अखण्ड ही बना रहता है।" प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के वीच के अन्तर को भर्तृहरि इस रूप में स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार घटी यन्त्र की तली में लगी नाली के छिद्र में से कुछ पानी तो बाहर निकल जाता है तथा कुछ अन्दर ही बना रहता है उसी प्रकार काल के सतत प्रवाह में एक अवधि को इस रूप में माना जा सकता है जिससे निर्गत काल को वद्ध भाग के रूप में कह सकते हैं। यहां पर प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा ने पानी को नियन्त्रित किया हुआ है । ये दोनों काल शक्तियां भी परस्पर सापेक्ष हैं। इनमें से एक पानी की पूर्ववर्ती स्थिति को बतला रही है तो दूसरी परवर्ती स्थिति को। इनमें पहले की स्थिति को अनागत तथा परवर्ती स्थिति को भूत या गत कहा जा सकता है।
___ इन दोनों शक्तियों -प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के बीच के अन्तर को ही वर्तमान समझना चाहिए । यही इन दोनों को पृथक् करने वाला तत्त्व है। नालिका के छेद से जो पानी गुजर रहा है वह वर्तमान कालिक ही है। वर्तमान की यह अवधि एक क्षण से लेकर सुदीर्घ काल तक भी हो सकती है। यह प्रयोक्ता पर ही निर्भर करता है कि वह इसका कितना परिमाण माने यथा 'आजकल' शब्द के द्वारा एक दो दिन से लेकर वर्षों तक के समय को कह दिया जाता है। यह सब वर्तमान काल ही है जो कि भूत तथा भविष्य के मध्य एक सीमा का आभास देता है।
वर्तमाने लट् (पा० ३।२।१२३) सूत्र पर महाभाष्य में पतञ्जलि ने प्रसङ्ग चलाया है कि 'इहाधीमद्र', 'इह पुष्यमित्रं याजयामः' इत्यादि प्रयोगों में भी लट् लकार का विधान करना चाहिए क्योंकि इन प्रयोगों में वर्तमानकालता न होने के कारण 'वर्तमानेलट्' से लट् लकार प्राप्त नहीं होगा। अध्ययन करते हुए तथा यजन करते हुए बीच बीच में भोजन आदि कार्य भी करने होते हैं। तब वर्तमान काल नहीं रहता यद्यपि अध्ययन तथा यजन आदि दीर्घ काल तक चलते रहते हैं। इसी प्रकार 'तिष्ठन्ति पर्वताः' यहां भी 'लट्' का विधान करना चाहिए क्योंकि यहां पर भूत भविष्य तथा २६८
. तुलसी प्रज्ञा
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