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'वाक्यपदीय' में काल की अवधारणा
- डॉ० रघुवीर वेदालंकार
क्रिया की सबसे बड़ी शक्ति 'काल' ही है। भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में काल के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया है। उन्होंने क्रिया समुद्देश के पश्चात् काल समुद्देश को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है । भर्तृहरि ने वहां पर काल की अन्य परिभाषाओं को उद्धृत करते हुए यह परिभाषा दी है कि जब जन्म क्रियाओं से पृथक् करके केवल एक ही क्रिया की ओर इंगित किया जाता है तब जिस वस्तु का परिमाण हमें ज्ञात होता है उसे 'काल' कहते हैं।' भर्तृहरि के अनुसार यह काल कथित या कथ्य मान क्रिया ही है ।' भर्तृहरि की दृष्टि में काल का सम्बन्ध सत्ता से होता है, वस्तु से नहीं। इसी को उन्होंने 'भूतो घट:' का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि जब हम 'भूतो घटः' कहते हैं तो भूत का संकेत सत्ता की ओर ही होता है, वस्तु की ओर नहीं।' ___काल-समुद्देश के प्रारम्भ में भर्तृहरि 'एके' कहकर वैशेषिकों का मत भी दिखलाते हैं कि यह काल क्रिया से अतिरिक्त है, नित्य, विभु तथा द्रव्य है। वैशेषिकदर्शन में नौ द्रव्यों में 'काल' की गणना भी की गयी है। भर्तृहरि भी काल को विभु तथा स्वतन्त्र स्वीकार करते हैं।
उनके अनुसार इसका काल नाम इसीलिए है कि यह एक ही सत्ता की विविध कलाओं को जलयन्त्र की गति की तरह लगातार घुमाता रहता है या खण्डित करता रहता है। यहां पर जो यह खण्ड रूप में लिखकर भी अखण्ड रूप में प्रतीति होती है, यह काल के कारण ही है। संसार की प्रत्येक प्रक्रिया तथा जीवन का प्रत्येक व्यापार काल की प्रक्रिया से अनुस्यूत है इसीलिए भर्तृहरि काल को स्वयं एक ऐसा व्यापार मानते हैं जिसके अंगभूत होकर ही विश्व के अन्य व्यापार प्रवृत्त होते हैं । इस प्रकार समस्त संसार का सूत्रधार काल ही है।
। यद्यपि भर्तु हरि काल को एक अखण्ड तथा अविच्छेद्य सत्ता मानते हैं पुनरपि उसके प्रवाह की दो सीमाएं-प्रतिबन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के रूप में स्वीकार करते हैं। काल की इन्हीं दो शक्तियों के कारण उसका कथित विभाजन सम्भव हो पाता है।' काल की इन दो शक्तियों को इस रूप में समझा जा सकता है कि कोई भी पदार्थ एक दम सम्पूर्ण रूप से उत्पन्न नहीं हो जाता क्योंकि प्रतिवन्धक नामक काल शक्ति ने उसे रोका हुआ है, किन्तु इसकी उत्पत्ति सर्वथा ही नहीं रुक गयी है अपितु शनैः शनैः हो रही है । यही है काल की अभ्यनुज्ञा नामक शक्ति। ये शक्तियां प्रत्येक पदार्थ के साथ बम ११, अंक ३
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