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होता है। तेरहवें गुणस्थान में केवली सयोगी होते हैं। अंतकाल में योग का निराध कर निष्कंप शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। मनोयोग, वचनयोग और काययोग को क्रमश: निरोध करता है । शुक्ल ध्यान के चौथे भेद समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति से सूक्ष्म किया को विच्छिन्न करता है, औदारिक शरीर, तेजस शरीर और कार्मण शरीर को क्रमशः छोड़ क्रिया रहित हो सिद्धों में मिल जाता है।
अंत में पूर्ति के पद्य हैंदे विद्या परमेस्वरी। परमेस्वर ने पाय लागू, हाथ जोडी विद्या मांगु । विद्या घर वावरी, दोदो विद्या आवरी ॥१॥ एक विद्या खोटी, गुरु पकडी चोटी । चोटी करे चम चम, विद्या आवे धम धम ॥२॥ संव १९९० वेसाख वीद ११ जयपुर मध्ये फूलचंद ।
खंड २१, अंक ३
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