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तो पिण पेट भरायतो नही ते माटे एहनो भय हिया मे राख । धर्म ने विषे आलस करी मा ॥४१॥
हिंदी- संसार प्रवीण यमराज का बड़ा पेट (उदर) है। जगत् के सब प्राणियों का वह ग्रास करता है फिर भी उसका पेट भरता नहीं है। इसलिए उसका भय हृदय में रखना । धर्म में आलस्य मत करना । प्रतिपाद्य-णस्थि कालस्स आगमो।
(आयारो २०६२) काल के लिए कोई भी समय अनवसर नहीं है, वह किसी भी क्षण आ सकता है। व्यक्ति को धर्म के आचरण में जागरूक रहना चाहिए, आलस्य नहीं करना चाहिए। र-राय रोकटार मल
मूल- राग धेरव दोय मोटा मल छे। ते वेहु मल ने जीपीस तो कर्म थी हलको थाइ केवल उपारजी ने अखय पद नो भोगी थाइस ॥४२॥
हिंदी- राग और द्वेष दो बड़े मैल है। इन दोनों मैलों को जीतेगा तो कर्मों से हल्का होकर केवल ज्ञान उत्पन्न कर अक्षय पद (सिद्ध पद) का भोगी होगा।
प्रतिपाद्य - जब तक राग और द्वेष रहता है तब तक केवल ज्ञान प्राप्त नहीं होता। राग द्वेष को नष्ट कर जब जीव १२वें गुणस्थान को पार करता है तब केवल ज्ञान प्राप्त होता है। केवली सिद्धगति को प्राप्त करते हैं। ल-लला घोडी लात वाय
मूल -- लोभ रुपी घोडा थी वेगलो रहीजे ॥४३॥ हिंदी-लोभ रूपी घोड़े से दूर रहना ।।
प्रतिपाद्य --- लोभ का उदय दसवें गुणस्थान तक रह जाता है। यह बहुत ही जटिल कषाय है । इसके लिए साधक को सावधन किया गया है कि लोभ के प्रति सजग रहें उसे बढ़ावा न दें।
भगवान् महावीर ने कहा हैजहा लाहो तहा लोहो उत्तराध्ययन ८।१७
यह एक दुष्चक्र है जिससे निकलना बहुत कठिन होता है। वर-ववा वेगण वास दे
मूल-ते कामादिक ना वेग छ। तेहने मन रुप घर में वास देइ समाजे माहे पेठो तो आत्मा उतम गुण रुप धन सव चोरी जाइसे ।।४४।।
हिंदी--काम आदि वेग हैं । उनको मन रूप घर में स्थान देकर समाज में रहेंगे तो आत्मा का उत्तम गुण रूप धन सब चोरी हो जाएगा। प्रतिपाद्य -- विभूषा इत्थी संसंग्गी, पणीय रसभोयणं । नरस्सत्त गवेसिस्स, विसं तालउडं जहा।
(दशवकालिक ८।५६) खंड २१, अंक ३
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