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पंच महाव्रत-क संक्षिप्त विवेचन
साध्वी संचितयशा
भारतीय संस्कृति में व्रत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन काल में व्रत सामाजिक, धार्मिक अनुष्ठानादि क्रियाओं में किए जाते थे । व्रत शब्द 'वृञ् वरणे' धातु से बना है। जिसका अर्थ है -स्वेच्छा से मर्यादा को स्वीकार करना । व्रत की स्वीकृति थोपी नहीं जाती। व्यक्ति इच्छा से व्रत को अपने जीवन का अंग बनाता है।
___ व्रत का आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उतना ही महत्व है, जितना भौतिक क्षेत्र में । वहां जो भी कार्य प्रारम्भ किया जाता है, उससे पहले व्रत किया जाता है। उपनिषदों एवं आगमों में व्रत-स्वीकरण के अनेक प्रसंग हैं। मत्स्य पुराण (अ० १०१) और पद्मपुराण (५.२०.४३) में ६० व्रतों का उल्लेख है। व्रत शब्द विरतिमात्र के लिए प्रयुक्त होता है। वियत इति व्रतम् --जो अविरति रूप छिद्र को ढांकता है वह व्रत है।' तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है-हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिव्रतम् ।
व्रत के दो भेद पूर्णता और अपूर्णता के आधार पर किए गये। पूर्ण विरति महाव्रत और अपूर्णविरति अणुवत।' इस प्रकार महव्वयं नाम महंतं व्रतं---महान् व्रतों का नाम महाव्रत है। हारिभद्रीय टीका में भी कहा है --- महच्च तव्रतं च महाब्रत। महर्षि पतंजलि ने व्रतों को यम बताकर उन्हें सार्वभौम कहा है। उनके मतानुसार व्रत, जाति, देश, काल, परिस्थिति आदि के प्रतिबंध से रहित हैं, सर्वव्यापक हैं, सभी स्थितियों में पालनीय हैं इसलिए महान् व्रत हैं।
प्राचीन काल में जीवन को चार विभागों में विभाजित किया - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास । व्यक्ति सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता, उसके पश्चात् गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास । इन आश्रमों में प्रवेश करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, नियम व्यक्ति को ग्रहण करने पड़ते । जैसा कि स्मृतिकार मनु ने कहा है-व्रतचर्योपचारं च स्नानस्य परं विधिम् अर्थात् ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का आचरण । मनु के अनुसार - जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति को षोडश संस्कारों से भी गुजरना पड़ता है। इस प्रकार वैदिक युग में व्यक्ति को परमात्मा-पवित्रात्मा बनने के लिए व्रत, संस्कार, महायज्ञ, श्राद्ध आदि विधि-विधान करना आवश्यक था।
बौद्ध परम्परा में महात्मा बुद्ध ने बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग और दशशील का विवेचन किया है। भगवान् बुद्ध के समय कर्मकाण्ड, पशुवध और बाह्य आडम्बर अधिक फैल चुके थे। जांति-पांति का भेद-भाव था जिससे मानव समाज
खण्ड २१, बंक ३
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