________________
से फैल गयी है कि पुष्यमित्र ने अपनी बुढ़ौती में किसी ग्रीक राजकुमारी की मांग की थी और उस मांग को प्राप्त करने के लिए वह लड़ता हुआ निहत हुआ। सत्य यह है भद्र नामक देश में कोई सुन्दरी ब्राह्मण-कन्या जनमी थी जिसे वहां के राजा अग्निमित्र ने अपने अन्तःपुर में लाना चाहा तो ब्राह्मणों से उसका विरोध हुआ। किसी अग्निवेशगोत्रीय क्षत्रिय ने उसके विरुद्ध ब्राह्मणों का पक्ष लेकर युद्ध किया। युद्ध में अग्निमित्र निहत हुआ।
पुराणों से अपरिचित होने के कारण ध्रुव ने मान लिया कि 'भद्र' नामक कोई देश नहीं हो सकता। इसी तरह अग्निमित्र नाम शुंगवंश को छोड़ कहीं नहीं हो सकता । और अग्निवेश गोत्र क्षत्रियों में हो ही नहीं सकता। यह समझ भी वैसे ही दयनीय है। अग्निवेश्य क्षत्रिय ही बाद में बैस कहलाये और उन्हीं के नाम पर अवध का एक भाग आज भी बैसवाड़ा कहलाता है । अस्तु, जिस राजा से शकों की मुठभेड़ हुई वह कोई बैस राजा था और घटनास्थल भद्र था, मगध नहीं । अतः शुंग या काण्वयुग से इसका कोई सम्बन्ध नहीं।
ध्रुव सम्पादित पाठ की ५८ से ६५ तक की पंक्तियां अम्लाट से सम्बन्धित हैं जिनमें से पंक्ति ५९ में उसके "पुष्पनाम" अर्थात् पाटलिपुत्र जाने का उल्लेख है ।' उसके सबान्धव विपत्ति में पड़ने की बात पंक्ति ६५ में कही गयी है (अम्लाटो लोहिताक्षः स विपत्स्यति सबान्धवः) । किन्तु इसका कोई कारण नहीं बताया गया है। इसके तुरन्त बाद ७६,७७ और ७८ पंक्तियों को रखने से वह स्पष्ट हो जाता है :
शकानां स ततो राजा ह्यर्थलुब्धो महाबलः ।। दुष्टभावश्च पापश्च कलिङ्गान् समुपस्थितः ॥
कलिङ्गशातराज्यार्थी विनाशं वै गमिष्यति ।। अम्लाट ने मगध जीतने के बाद कलिंग को लेना चाहा जो सातवाहन राजा के अधीन था तो दोनों में टकराव हुआ और अम्लाट विनष्ट हुआ। हमारी समझ में पूर्व में शक अभियान की कहानी अम्लाट के साथ ही खत्म हो जाती है। इसके बाद आता है पंक्ति ८२ में उल्लिखित सातवाहन राजा का १० वर्ष का शासन।
अम्लाट के बाद मगध में चार राजाओं का उल्लेख है जिन्हें ध्रुव शक सिद्ध करना चाहते हैं । यह धारणा उन्हीं के पाठ से खंडित हो जाती है क्योंकि पंक्ति ६५ में अम्लाट के 'सबान्धव' नष्ट होने की बात कही गयी है। उसके बान्धव शकों के सिवा कौन थे ? पंक्ति ६६ में है 'तस्य राज्यपरिक्षये' (उसका राज्य नष्ट हो जाने पर)। फिर उसके बाद हुए राजाओं को शक मानने का आग्रह समझ में नहीं आता । पंक्ति ७२ में कल्पित पाठ है-ततस्तु शर्विलो राजा हरणः सुमहाबलः । यदि शक मानने का हठ न होता यो 'ततः रविकुलो राजा बनरण्यो महाबलः' या 'ततः विप्रकुलः राजा ह्ययनरण्यो महाबलः' भी माना जा सकता था जो हस्तलेखों के निकटतर होना । सबसे अधिक विकृति लाई गई है पंक्ति ७४ में। ध्रुव का पाठ है'ततो वै कुयशाः कोऽप्यब्रह्मण्यो महाबलः' जिसमें राजा के विशेषण ही विशेषण हैं, नाम
खण्ड २१, अंक ३
२७७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org