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वर्तमान को दो प्रकार का मानकर काल के ग्यारह विभाग भी किये हैं। हेलाराज ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है कि भूत सामान्य, अद्यतनीयभूत, अनद्यतनीयभूत इन दोनों के समुदाय से भिन्न तथा जो भविष्यत् होते हुए भी क्रिया निष्पत्ति या अतिदेश से भूत के कार्यों को प्राप्त करता है वह, इस प्रकार ये पांच भेद भूत के हैं। भविष्य के चार भेद इस प्रकार हैं -सामान्य भविष्य, असतनीय भविष्य, अनद्यतनीय भविष्य तथा इन दोनों का समुदाय । वर्तमान के दो भेद हैं- मुख्य वर्तमान तथा अमुख्य वर्तमान । अमुख्य वर्तमान वह है जो भूत तथा भविष्य दोनों की सीमाओं का स्पर्श करता है। पाणिनि भी भाषा वैज्ञानिक नियम के रूप में सूत्रों के द्वारा इसका निर्देश करते हैं।
इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि काल तत्व नित्य विभु तथा अखण्ड है । इसमें दिन-मास-वत्सर आदि का विभाग लोक व्यवहार की दृष्टि से ही है। काल की कोई अवधि या सीमा नहीं है। कदाचित् इसी आशय से भवभूति ने भी 'कालो ह्यं निरवधिः' कहा होगा।
संदर्भ: १. क्रियान्तर परिच्छेदे प्रवृत्ता या क्रियां प्रति ।
विज्ञति परिमाणा सा काल इत्यभिधीयते ॥ वा० ५० ३७७ २. अतः क्रियान्तर भावे सा क्रिया काल इष्यते । वही ३१७८ ३. भूतो घट इतीयं च सत्ताया एव भूतता। वही ३१७९ ४. व्यापारव्यतिरेकेण कालमेके प्रचक्षते ।
नित्यमेकं विभुं द्रव्यं परिमाणं क्रियावताम् ॥ वही ५. पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि (वैशे० ११५) ६. जलयन्त्र भ्रमावेश सदृशीभिः प्रवृत्तिभिः ।
स कलाः कालयन् सर्वा कालाख्यां लभते विभुः ॥ वही ३।१४ ७. प्रत्यवस्थं तु कालस्य व्यापारोऽत्र व्यवस्थितः ।।
काल एव हि विश्वात्मा व्यापार इति कश्यते ॥ वही ३।१२ ८. प्रतिबन्धाभ्यनुज्ञाभ्यां तेन विश्व विभज्यते ॥ वही ३१४ ९. यदि न प्रतिवध्नीयात् प्रतिवन्धश्च नोत्सृजेत् ।
अनस्था व्यतिकीर्येरन् पौर्वापर्य विना कृता । वही ३१५ १०. वही, ३३३ ११. प्रतिवन्धाभ्यनुज्ञाभ्यां वृत्तिर्याऽस्म शाश्वती ।
तया विभज्यमानासौ भजते क्रमरूपताम् ॥ वही ३१३० १२. प्रतिवन्धाभ्यनुज्ञाभ्यां नालिकाविवराश्रिते । __ यदम्भसि प्रक्षरणं तत्कालस्यैव चेष्टितम् ॥ वही ३७० १३. अस्ति य मुक्तसंशये विरामः (भ० भा० ३।२।१२३ वा० ४)
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तुलसी प्रज्ञा
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