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किया जाता है
"उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे ।
धर्माय तनु विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।।"५ अर्थात् भयानक उपसर्ग के समय, अकाल में, वृद्धावस्था में तथा आचार पालन में बाधा उपस्थित होने पर और असाध्य रोग के अवसर पर सल्लेखना ग्रहण किया जाता है । जैनागमों में श्रावक और श्रमण दोनो के लिए सल्लेखना व्रत का विधान मिलता
सल्लेखना और आत्महत्या में अन्तर
चूंकि सल्लेखना में स्वेच्छा मृत्यु को वरण किया जाता है अर्थात् दूरस्थ मृत्यु को आहारादि के त्याग से समीप बुलाया जाता है अतएव इसमें आत्महत्या जैसी स्थिति बनती है, परन्तु सल्लेखना और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है । आत्महिंसा करने वाले व्यक्ति का संसार के प्रति रागात्मक सम्बन्ध बना रहता है, वह जीवन के संघर्षों से ऊबकर आत्महत्या के लिए उद्यत होता है। ऐसी स्थिति में उसके चित्त में क्रोधादि की स्थिति रहती है इसलिए ऐसा करने में दोष माना गया है, जबकि सल्लेखना धारण करने वाला साधक सांसारिक रागादि से रहित होता है, उसका चित्त कषायों के नष्ट हो जाने से स्वच्छ और निर्मल होता है, इसलिए सल्लेखना को आत्महत्या से भिन्न माना गया है । पञ्चाध्यायी में कहा भी है.---
"अर्थाद्रागदयोहिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः ।
अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मो अथवा किल ।।६।। सल्लेखना में आत्महत्या जैसी प्रतीत होने वाली प्रकृति भी निर्दोष कही गई है क्योंकि ऐसा करने के पीछे साधक की सांसारिक भोगों की महत्त्वाकांक्षा नहीं होती, वरन् जीवन लक्ष्य की प्राप्ति की उत्कट इच्छा होती है । 'वृहदभाष्य" के अनुसार जिस तरह डॉक्टर का चीरफाड़ हिंसा जैसा प्रतीत होता है परन्तु ऐसा करने के पीछे डॉक्टर का उद्देश्य रोगी को दुःख पहुंचाना न होकर सुख पहुंचाना ही होता है, उसी तरह सल्लेखना का उद्देश्य देहिक पीड़ा न होकर आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति है । सल्लेखना में आत्मस्वरूप का दिव्य प्रकाश है, तो आत्महत्या में मोह-ममता का गहन अन्धकार है । समाधिमरण आत्म जीवन है, तो आत्मघात जीवन का विनाश है, सद्वृत्तियों का पूर्णतः ह्रास है, दुर्गति का विधायक है और आत्मपीड़क है । सल्लेखना अपने बल, वीर्य, धृति तथा पुरुषार्थ का अधिक से अधिक सदुपयोग है, तो आत्महत्या जीवन की समस्त शक्तियों का एक साथ दुरुपयोग है । सल्लेखना एक नए जीवन का आह्वान है, मृत्यु को भी जोवन के रूप में परिवर्तित करने की एक धर्मयात्रा है और सबसे बढ़कर वीरतापूर्ण मुक्ति का अभियान है । आत्महत्या जीवन से पलायन है, कायरता है तथा हीन योनियों में भटकने की मन्त्रणा है। गीता में इस बात की स्वीकृति है कि मृत्यु के समय, जीव जैसी भावना करता है उसी के अनुसार योनि में उसका पुनर्जन्म होता है । आचार्य भद्रबाहु ने कहा है कि “साधक की देह संयम की साधना के लिए है यदि देह ही नहीं रही तो संयम कैसे रहेगा। अतः संयम की साधना के लिए देह का परिपालन
खण्ड २१, अंक ३
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