Book Title: Tulsi Prajna 1995 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ परिग्रह में हिंसा निहित है। इसी प्रकार भोग में भी हिंसा निहित है। भोग और हिंसा एक ही रेखा के दो बिन्दु हैं। ऐसा कोई भोगी नहीं जो भोग का सेवन करता है और हिंसा नहीं करता । जहां हिंसा है, वहां भोग हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। किन्तु जहां भोग है वहां हिंसा निश्चित है। अतः यह आवश्यक है कि व्यक्ति एक संयमित जीवन के लिए जिए, किसी की हिंसा न करे और इस संयमित जीवन से कभी खिन्न न हो। आज सारे समाज में जो अशांति है उसका मुख्य कारण, जैन दर्शन के अनुसार, हम अतिभोग और विलास की वृत्ति तथा इसके लिए प्रचुर रूप में साधन-सुविधाओं को जुटाने में देख सकते हैं । मनुष्य इसी कारण अधिकाधिक हिंसक और क्रूर होता जाता है । जब तक मनुष्य इस हिंसा और क्रूरता से मुक्ति नही पाता वह स्पष्ट ही शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता । शान्ति का अर्थ अन्ततः हिंसा से विरति ही है। ऐसा नहीं है कि अर्थ और काम अपने आप में अशांन्ति प्रदान करने वाले हैं, अथवा विमूल्य हैं। वे विमूल्य तब हो जाते हैं जब हम उन्हें अपने जीवन का साध्य मान बैठते हैं और अर्थोपार्जन में या भोग-विलास में आसक्ति और ममत्व विकसित कर लेते हैं । जैन दर्शन इसी ममत्व के विसर्जन के लिए आग्रहशील है क्योंकि यही ममत्व आसक्ति, हिंसा और क्रूरता का कारण बनता है। समाज में सभी व्यक्ति यदि ममत्व से प्रेरित होकर हिंसा न करें बल्कि समत्व की भावना से परस्पर एक दूसरे के कल्याण के लिए कार्य करें शांति तभी संभव है । परस्परोपग्रहो जीवानाम् --प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे के कल्याण के लिए ही बना है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में शान्ति अनेकार्थी है । शान्ति उपशमन है-क्रोधादि कषायों से मुक्ति है । शान्ति अहिंसा है–समस्त जीवों के प्रति करूणा और दया है । शान्ति उपद्रव निवारण है ---रोगों और शत्रुओं की समाप्ति है। शांति संयम है-विषयों के प्रति मन का नियंत्रण है। काम की अग्नि को बुझाना है। और अंततः शान्ति मुक्ति या मोक्ष है- जीवन और मरण के चक्र से छुटकारा है। इसी प्रकार शान्ति के कई पक्ष या आयाम भी हैं । स्वयं अपने आप से शान्ति का अर्थ है व्यक्ति का अपनी आत्मा में अवस्थित होना और इस प्रकार समत्व की स्थिति, जो एकमात्र शांतावस्था है-को प्राप्त होना । वनस्पति जगत् से शान्ति बनाए रखने का अर्थ है प्रकृति के नियमों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करना क्योंकि यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है । वनस्पति जगत् और प्राणी जगत् में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है। दोनों में ही प्राणतत्त्व है । आज जैसा कि हम सभी जानते हैं, इस बात को विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। और आज, साथ ही इस बात की भी जागरूकता पैदा हो गई है कि वनस्पति जगत् को नष्ट करने में हानि अन्ततः स्वयं मनुष्य की ही है और इसीलिए पर्यावरण संरक्षण पर आजकल इतना बल दिया जाता है। पशु जगत् में शांति बनाए रखना भी जरूरी है। और इसका अर्थ है सभी जीवों को कष्ट पहुंचाने से विरति । अहिंसा की यह भावना जैन दर्शन का मर्म है। जैन धर्म की करुणा केवल मनुष्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह एक व्यापक करुणा है जिसमें पशु जगत् भी खण्ड २१, अंक ३ २५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174