________________
चाहिए, न दूसरों से प्रयोग करवाना चाहिए और न ही प्रयोग करने वालों का अनुमोदन करना चाहिए।" समाज के साथ शान्ति
समाज में अशान्ति का मुख्य कारण मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद-भाव है । बेशक, परस्पर अंतर हो सकते हैं । कोई उच्च गोत्र में जन्म लेता है नो कोई निम्न गोत्र में, कोई स्वस्थ तो कोई विकलांग, लेकिन मनुष्य और मनुष्य के बीच ये सभी ऐसे अन्तर हैं जिसके लिए मनुष्य को अभिमान करने की आवश्यकता नहीं है । यदि हम पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं तो हम अच्छी तरह जानते हैं कि अपने अनेकानेक जन्मों में व्यक्ति कई बार उच्च गोत्र तो कई बार निम्न गोत्र में जन्म ले चुका होता है। ऐसे में भला कौन ऐसा होगा जो गोत्रवादी होकर अपने गोत्र में अभिमान कर सकेगा । और अपने गोत्र के प्रति मोह रख सकेगा। अतः मनुष्य को अपने गोत्रीय स्तर को न तो ऊंचा समझना चाहिए और न हीन समझना चाहिए। उसे इस प्रकार की स्पृहा से मुक्त हो जाना चाहिए । उसे अपने पद पर न तो हर्षित होना है और न ही कुपित । बल्कि इन भेदों के प्रति एक सम्यक-दृष्टि अपनाना ही श्रेयस्कर है । कोई स्वस्थ होता है तो कोई, बहरा, गूंगा, काना, लूला, कुबड़ा, बौना, कोढ़ी और कोई विरूप होता है । व्यक्ति नाना प्रकार के आधातों का अनुभव करता है और इस प्रकार हत या अपहत होता रहता है। ऐसे में परस्पर किसी भी प्रकार का भेद भाव का कोई औचित्य ही नहीं है । हमें एक दूसरे के दुःख-सुख को समझना चाहिए। इसी में हम सबका कल्याण है।
- कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो मरना चाहता हो। सभी आयुष्मान होना चाहते हैं । वे सुख का अनुभव करना चाहते हैं और दुःख से घबराते हैं। उन्हें सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है । उन्हें वध अप्रिय है और जीवन प्रिय है। सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है । किन्तु विडम्बना यह है कि मनुष्य फिर भी कभी चतुष्पद पशुओं को और कभी द्विपद अपने साथियों का शोषण करता है, और उनका दुरुपयोग कर अपने भोग विलास के लिए, संपत्ति का संवर्धन करता है। लेकिन यह संपत्ति अंततः उसके किसी काम नहीं आती। परिवार के अन्य लोगों में यह बंट जाती है, चोर उसे चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं, वह नष्ट हो जाती है, अथवा गृह दाह में जल जाती है। फिर भी एक अज्ञानी पुरुष हिंसा और शोषण से बाज नहीं आता । अपनी संपत्ति और साधनों में आसक्ति बनाए रखता है, और सुख की कामना करता हुआ अन्ततः दुःख भोगता है और इस प्रकार विपर्यास की एक बिपरीत स्थिति को प्राप्त होता है । सुख और शान्ति का स्पष्ट ही यह मार्ग नहीं है कि हम शोषण और क्रूर-कर्म द्वारा संपत्ति अजित करें और वह भी हमारे काम न आवे । ___ जैन दर्शन इस प्रकार समाज में अशान्ति का कारण हिंसा और परिग्रह में देखता है। यदि समाज से आवश्यक हिंसा और क्रूरता समाप्त हो जाए और व्यक्ति परिग्रह की संपत्ति के संवर्धन की निरर्थकता को समझ ले तो कोई कारण नहीं है कि समाज में अशांति रहे ।
२५८
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org