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दानवीर साह शान्ति प्रसादजी और उनकी समरूपा धर्मपत्नी सौ० रमाजी जैन ने भारतीय ज्ञान की अमूल्य निधियोंके अन्वेषण संशोधन और प्रकाशन निमित्त भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना की है । इसीके अन्तर्गत जैनग्रन्थोंके अनुसन्धान और प्रकाशनके लिए स्व०मातेश्वरी मूर्तिदेवीके स्मरणार्थ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्राकृत संस्कृत अपभ्रश आदि भाषाओंमें प्रकाशित की गई है। यह ग्रन्थ उसी ग्रन्थमालाका चतुर्थ पुष्प है। इस भद्र दम्पतिको यह मौलिक सांस्कृतिक रुचि अनुकरणीय और अभिनन्दनीय है।
सुप्रसिद्ध साहित्यसेवी श्रीमान् पं० नाथूरामजी प्रेमी द्वारा लिखित 'श्रुतसागरसूरि' लेख ग्रन्थकार विभाग में उद्धृत है।
श्री पं० राजकुमारजी शास्त्री साहित्याचार्यने इसके २॥ अध्यायके प्रारम्भिक पाठान्तर लिए थे। पं० देवकुमारजी शास्त्री ने कन्नडप्रतिका वाचन किया तथा पं० महादेवजी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्यने प्रफर्मशोधनमें सहयोग दिया है।
ज्ञानपीठने सम्पादनशिक्षणनिमित्त दो विशेषवृत्तियाँ प्रारम्भ की थीं। उनमें एक वृत्ति उदयचन्द्र सर्वदर्शनाचार्य बी.ए. को दी गई थी। प्रिय शिष्य श्री उदयचन्द्रजीने इस ग्रन्थके कुछ पाठान्तर लिये और हिन्दीसार लिखा है। मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता होती है कि ये आगे चलकर अच्छे साहित्यसेवी सिद्ध होंगे । पं० परमानन्दजी शास्त्रीने कुछ अवतरणोंके मूलस्थल खोजकर भेजे हैं। उनके द्वारा लिखित 'ब्रह्मश्रुतसागरका समय और साहित्य' शीर्षक लेखकी पाण्डुलिपि भी मुझे प्राप्त हुई थी।
श्री बाबू पन्नालालजी अग्रवाल दिल्ली, पं० भजबली शास्त्री मुडबिद्री और पं० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्यने अपने यहां के भण्डारोंकी प्रतियां भिजवाई। मैं इन सब विद्वानोंका आभारी हूँ। अन्तमें मैं पुनः वही बात दुहराता हूँ कि-'सामग्री जनिका कार्यस्य नेक कारणम्'-अर्थात् सामग्री कार्यको उत्पन्न करती है, एक कारण नहीं। मैं सामग्रीका मात्र एक अंग ही हूँ।
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी माघ शुक्ल ५, वीर सं० २४७५
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-महेन्द्रकुमार जैन
प्रकाशन-व्यय
छपाई ३०००) कागज १०००) सम्पादन २२५०) जिल्द ६००) व्यवस्था २२५०)
कमीशन २४००) भेंट आलोचना ८००) विज्ञापन २००) चित्रकवर १००)
१२६००) ६०० प्रति छपी, लागत मूल्य २१) कीमत १६.)
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