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तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना न्ह जाता है और अनन्त कालतक अपनी शुद्ध चिन्मात्र दशाम बना रहता है । फिर इसका विभाव या अशुद्ध परिणमन नहीं होता क्योंकि विभाव परिणमन की उपादानभूत रागादि सन्तति उच्छिन्न हो चुकी है। इस प्रकार द्रव्य स्थिति है। जो पर्याय प्रथमक्षण में हैं वह दूसरे क्षणमें नहीं रहती है। कोई भी पर्याय दो क्षण ठहरनेवाली नहीं है। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायका उपादान है। दूसरा द्रव्य चाहे वह सजातीद हो या विजातीय निमित्त ही हो सकता है, उपादान नहीं । पुद्गल में अपनी योग्यता ऐसी है जो दूसरे परमाणुमे सम्बन्ध करके स्वभावत: अशुद्ध बन जाता है पर आत्मा स्वभावसे अशुद्ध नहीं बनता । एक बार शद्ध होने पर वह कभी भी फिर अशुद्ध नहीं होगा।
इस तरह इस प्रतिक्षण परिवर्तनशील अनन्तद्रव्यमय लोकमें मैं एक आत्मा हूँ। मेरा किमी दूसरे आत्मा या फुद्गल आदि द्रव्योंसे कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं अपने चैतन्यका स्वामी हूँ, मात्र चैतन्यरूप हूँ। यह शरीर अनन्त पुद्गल परमाणुओंका एक पिण्ड है, इसका में स्वामी नहीं हूँ। यह सब पर द्रव्य है । इसके लिए पर पदार्थोमें इष्ट अनिष्ट बुद्धि करना ही संसार है। में एक व्यक्ति हूँ। आजतक मैंने पर पदार्थोको अपने अनुकूल परिणमन करानेकी अनधिकार चेष्टा की । मने यह भी अनधिकार चेष्टा की कि संसारके अधिकसे अधिक पदार्थ मेरे अधीन हों, जैसा मैं चाहूँ वैसा परिणमन करें। उनकी वृत्ति मेरे अनुकूल हो । पर मूर्ख, तू तो एक व्यक्ति है। अपने पणिमन पर अर्थात् अपने विचारों पर और अपनी त्रियापर ही अधिकार रख सकता है. पर पदार्थों पर तेरा वास्तविक अधिकार क्या है ? यह अनधिकार चेष्टा ही राग द्वेषको उपत्पन्न करती है। तू चाहता है कि-गरीर प्रकृति स्त्री पूत्र परिजन आदि सब तेरे इशारेगर चलें, संसारके समस्त पदार्थ तेरे अधीन हों, तू त्रैलोक्यको इशारेपर नचानेवाला एकमात्र ईश्वर बन जाय । पर यह सब तेरी निरधिकार चेष्टाएँ हैं। तु जिस नन्ह संसारके अधिकतम पदार्थोंको अपने अनुकूल परिणमन कराके अपने अधीन करना चाहता है उसी तरह तेरे जैसे अनन्त मढ़ चेतन भी यही दुर्वासना लिए हैं और दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन करना चाहते हैं । इसी छीनाझपटीमें संघर्ष होता है, हिंसा होती है, राग द्वेष होता है और अन्ततः दुःख । सूख और दुःखकी स्थूल परिभाषा यह है कि 'जो चाहे सो होवे' इसे कहते हैं सुख और 'चाहे कुछ और होवे कुछ, या जो चाहे सो न हो' यही है दु:ख । मनष्यकी चाह सदा यही रहती है कि मझे मदा इण्टका संयोग रहे, अनिष्टका संयोग न हो, चाहके अनुसार समस्त भौतिक जगत् और चेतन परिणत होते रहें, शरीर चिर यौवन रहे, स्त्री स्थिरयौवना हो, मृत्यु न हो, अमरत्व प्राप्त हो, धन धान्य हों, प्रकृति अनुकल रहे, और न जाने कितनी प्रकारको 'चाह' इस शेखचिल्ली मानवको होती रहती हैं। उन सबका निचोड़ यह है कि जिन्हें हम चाहें उनका परिणमन हमारे इशारे पर हो, तव इस मन्द मानवको क्षणिक सुखका आभास हो सकता है। बुद्धने जिस दुःखको सर्वानुभत बताया वह सब अभावकृत ही तो है। महावीरने इस तष्णाका कारण बताया-स्वस्वरूपकी मर्यादाका अज्ञान । यदि मनष्यको यह पता हो कि जिनकी मैं चाह करता हूँ, जिनकी तष्णा करता हूँ वे पदार्थ मेरे नहीं हैं, मैं तो एक चिन्मात्र हैं, तो उगे अनुचित तृष्णा ही उत्पन्न न होगी। कवि युगवीरने बहुत सुन्दर लिखा है:---
"जगके पदार्थ सारे वर्ते इच्छानुकूल जो तेरी। तो तुझको सुख होवे, पर ऐसा हो नहीं सकता ।। क्योंकि परिणमन उनका शश्वत उनके अधीन रहता है। जो निज अधीन चाहे वह व्याकुल व्यर्थ होता है । इससे उपाय सुखका सच्चा स्वाधीन वृत्ति है अपनी । रागद्वेषविहीना क्षणमें सब दुःख हरतो जो ॥"
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