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आस्रवतत्वनिरूपण
भीषण अनर्थ परम्पराओंका सृजन करता है । तुच्छ स्वार्थ के लिए मनुष्य जीवनको व्यर्थ ही खो देता है। अनेक प्रकारके ऊंच नीच भेदोंकी सृष्टि करके मिथ्या अहंकारका पोषण करता है। जिस किमी भी देवको जिस किसी भी वेषधारी गुरुको जिस किसी भी शास्त्रको भय आगा स्नेह और लोभ से मानने को तैयार हो जाता है। न उसका अपना कोई सिद्धात है और न व्यवहार । थोडेसे प्रलोभनसे वह सब अनर्थ करने को प्रस्तुत हो जाता है। जाति, ज्ञान, पूजा, कुल, बल, ऋद्धि, नप और शरीर आदिके करण मदमत्त होता है और अन्योंको तुच्छ समझकर उनका तिरस्कार करता है। भय, आकाङ्क्षा, घृणा, अन्यदोषप्रकाशन आदि दुर्गणांका केन्द्र होता है। इसकी प्रवृत्ति के मूलमें एक ही बात है और वह है स्व-स्वरूपविभ्रम । उसे आत्मस्वरूपका कोई श्रद्धान नहीं। अत: वह बाह्य पदार्थोंमें लुभाया रहता है। यही मिथ्या दृष्टि सच दापोंकी जननी है, इसीसे अनन्त संसारका बन्ध होता है । दर्शनमोहनीय नामक कर्मके उदयमें यह दृष्टिमता होती है।
अविरति-चारित्रमोह नामक कर्मके उदयसे मनुष्यको चारित्र धारण करने के परिणाम नहीं हो पाते। वह चाहता भी है तो भी कषायोंका ऐसा तीव्र उदय रहता है जिससे न तो सकल चारित्र धारण कर पाता है और न देश चारित्र । कषाएँ चार प्रकार की है(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ-अनन्त संसारका बंध करानेवाली, स्वरूपाचरण
चारित्रका प्रतिबन्ध करनेवाली, प्रायः मिथ्यात्वसहचारिणी कपाय । पत्थरकी रेखाके समान । (२) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ-देश चारित्र-अणुव्रतोंको धारण करने के भावोंको
न होने देने वाली कषाय । इसके उदयसे जीव भावना के व्रतोंको भी ग्रहण नहीं कर पाता।
मिट्टोके रेखाके समान । (३) प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ-संपूर्ण चारित्रकी प्रतिबन्धिका कषाय । इसके उदयसे
जीव सकल त्याग करके संपूर्ण व्रतोंको धारण नहीं कर पाता। धूलि रेखाके समान । (४) संज्वलन कोष मान माया लोभ-पूर्ण चारित्रमें किंचिन्मात्र दोष उपन्न करनेवाली कषाय ।
यथाख्यात चारित्रकी प्रतिबन्धिका । जलरेखाके समान । इस तरह इन्द्रियोंके विषयोंमें तथा प्राण्यसंयममें निर्गल प्रवृत्ति होनेसे कर्मोका आस्रव होता है। अविरतिका निरोध कर विरतिभाव आनेपर कर्मोका आस्रव नहीं होता।
प्रमाद-असावधानीको प्रमाद कहते हैं। कशल कर्मोमें अनादरका भाव होना प्रमाद है। पांचों इन्द्रियोंके विषयोंमें लीन होने के कारण, राजकथा चोरकथा स्त्रीकथा और भोजनकथा इन चार विकथाओंमें मलने के कारण, क्रोध मान माया और लोभ इन चार कषायोंमें लिप्त रहने के कारण, निद्रा और प्रणयमग्न होने के कारण कर्तव्य पथमें अनादरका भाव होता है । इस असावधानी से कुशलकर्मके प्रति अनास्था तो होती ही है, साथही साथ हिंसाकी भूमिका भी तैयार होने लगती है। हिंसाके मुख्य हेतुओंमें प्रमादका स्थान ही प्रमुख है। बाह्यमें जीवका घात हो या न हो किन्तु असावधान और प्रमादी व्यक्तिको हिंसाका दोष सुनिश्चित है। प्रयत्नपूर्वक प्रवत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधकके द्वारा बाह्य हिंसा होनेपर भी वह अहिंसक है। अतः
माद आसवका मख्य द्वार है। इसीलिए भ० महावीरले वारबार गौतम गणधरको चेताया है कि "समयं गोयम मा पमादए।" अर्थात् गौतम, किसी भी समय प्रमाद न करो।
कषाय-आत्माका स्वरूप स्वभावतः शान्त और निर्विकारी है। परन्तु क्रोध मान माया और लोभ ये चार कथाएँ आत्माको कस देती हैं और इसे स्वरूपच्युत कर देती है। ये चारों आत्माकी विभाव दशाएँ हैं। क्रोधकषाय द्वेष रूप है यह द्वेषका कार्य और द्वेषको उपन्न करती है। मान यदि क्रोधको उत्पन्न करता है तो हंप रूप है। लोभ रागरूप है। माया यदि लोभको जागृत करती है तो रागरूप है। तात्पर्य यह कि राग द्वेष मोह की दोषत्रिपुटीमें कषायका भाग ही मुख्य है। मोहरूप मिथ्यात्व दूर हो जानेपर भी सम्यग्दष्टिको राग-द्वेष रूप कषायें बनी रहती हैं। जिसमें लोभ कषाय तो पदप्रतिष्ठा और यशोलिप्साके
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