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मोक्षतत्त्वनिरूपण
समाधि, साधु सेवा, अर्हन्त आचार्य बहुश्रुत और प्रवचनमें भक्ति, आवश्यक क्रियाओंमें सश्रद्ध निरालस्य प्रवृत्ति, शासन प्रभावना, प्रवचन वात्सल्य आदि सोलह भावनाएँ जगदुद्धारक तीर्थकर प्रकृतिके आस्रवका कारण होती है। इनमें सम्यग्दर्शनके साथ होने वाली जगवृद्धार की तीव्र भावना ही
__ नीचगोत्र---परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, परगुणविलोप, अपनेमें अविद्यमान गुणोंका प्रख्यापन, जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, श्रुतमद, ज्ञानमद, ऐश्वर्यमद, तपोमद, परापमान, परहास्यकरण, परपरिवादन, गुरुतिरस्कार, गुरुओंसे टकराकर चलना, गुरु दोषोद्भावन, गुरु विभेदन, गुरूओंको स्थान न देना, भर्त्सना करना, स्तुति न करना, विनय न करना, उनका अपमान करना, आदि नीचगोत्रके आस्रवके कारण हैं।
___उच्चगोत्र---पर प्रशंसा, आत्मनिन्दा, पर सद्गुणोद्भावन, स्वसद्गुणाच्छादन, नीचैर्वृत्ति--नप्रभाव, निर्मद भाव रूप अनुत्सेक, परका अपमान हास परिवाद न करना, मदुभाषण आदि उच्चगोत्रके आस्रवके कारण होते हैं।
__ अन्तराय---दूसरोंके दान लाभ भोग उपभोग और वीर्यमें विघ्न करना, दानकी निन्दा करना, देवद्रव्यका भक्षण, परवीर्यापहरण, धर्मोच्छेद, अधर्माचरण, परनिरोध, बन्धन, कर्णछेदन, गुह्यछेदन, इन्द्रिय विनाग आदि विघ्नकारक विचार और क्रियाएँ अन्तराय कर्मका आस्रव कराती हैं।
सारांश यह कि इन भावोंसे उन उन कर्मोंको स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध विशेष रूपसे होता है। वैसे आयुके सिवाय अन्य सात कर्मोका आस्रव न्यूनाधिक भावसे प्रतिसमय होता रहता है । आयुका आत्रव आयुके त्रिभागमें होता है।
___ मोक्ष-बन्धनमुक्तिको मोक्ष कहते हैं। बन्धके कारणोंका अभाव होनेपर तथा संचित कर्मोकी निर्जरा होनेपर समस्त कर्मोका समूल उच्छेद होना मोक्ष है। आत्माकी वैभाविकी शक्तिका संसार अवस्थामें विभाव परिणमन हो रहा था। विभाव परिणमनके निमित्त हट जानेसे मोक्षदशाम उसका स्वभाव परिणमन हो जाता है । जो आत्माके गण विकृत हो रहे थे वे ही स्वाभाविक दशामें आ जाते हैं। मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन बन जाता है , अज्ञान ज्ञान और अचारित्र चारित्र । तात्पर्य यह कि आत्मा का सारा नकशा ही बदल जाता है। जो आत्मा मिथ्यादर्शनादि रूपसे अनादिकालसे अशुद्धिका पुज बना हुआ था वही निर्मल निश्चल
और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है। उसका आगे सदा शुद्ध परिणमन ही होता है । वह चैतन्य निर्विकल्प है। वह निस्तरंग समुद्रकी तरह निर्विकल्प निश्चल और निर्मल है। न तो निर्वाण दशामें आत्माका अभाव होता है और न बह अचेतन ही हो जाता है। जब आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक द्रव्य है तब उसका अभाव हो ही नहीं सकता। उसमें परिवर्तन कितने ही हो जॉय पर अभाव नहीं हो सकता। किसीकी भी यह सामर्थ्य नहीं जो जगत् के किसीभी एक सत्का समूल उच्छेद कर सके।
बुद्धसे जब प्रश्न किया गया कि-'मरने के बाद तथागत होते हैं या नहीं तो उसने इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें डाल दिया था। यही कारण हुआ कि बुद्धके शिष्योंने निर्वाणके विषयमें दो तरहकी कल्पनाएँ कर डाली। एक निर्वाण वह जिसमें चित्त सन्तति निरास्त्रब हो जाती है और दूसरा निर्वाण बह जिसमें दीपकके समान चित्त सन्तति भी बुझ जाती है अर्थात् उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। रूप वेदना विज्ञान संज्ञा और संस्कार इन पाँच स्कन्ध रूप ही आत्माको माननेका यह सहज परिणाम था कि निर्वाण दशामें उसका अस्तित्व न रहे। आश्चर्य है कि बुद्ध निर्वाण और आत्माक परलोकगामित्वका निर्णय वताए विना ही दुःख निवृत्तिके उपदेशके सर्वांगीण औचित्यका समर्थन करते रहे। यदि निर्वाणमें चित्तसन्ततिका निरोध हो जाता है, वह दीपक की तरह बझ जाती है अर्थात् अस्तित्वशन्य हो जाती है तो उच्छेदवादके दोषसे बुद्ध कैसे बचे? आत्माके नास्तित्वसे इनकार तो इसी भयसे करते थे कि यदि आत्माको नास्ति कहते है तो उच्छेदवादका प्रसंग आता है और अस्ति कहते हैं तो शाश्वतवादका प्रसंग आता है। निर्वाणावस्थाम उच्छेद मानने और मरणके बाद उच्छेद मानने में तत्त्वदृष्टिसे कोई विशेष अन्तर नहीं है । बल्कि चार्वाक का सहज उच्छेद सबको सुकर क्या अयत्नसाध्य होनेसे सहजग्राह्य होगा और बुद्धका निर्वाणोत्तर उच्छेद
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