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सवरतत्त्वनिरूपण
प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्त्य ( सेवाभाव ) स्वाध्याय और व्युत्सर्ग ( परिग्रहत्याग ) में चित्तवृत्ति लगाना। ध्यान-चित्तकी एकाग्रता । उपवास, एकाशन,रसत्याग,एकान्तसेवन, मौन, शरीरको सुकुमार न होने देना आदि वाह्यतप है। इच्छानिवत्ति रूप तप गण है और मात्र बाह्य कायक्लेश, पंचाग्नि तपना, हठ योग की कटिन क्रियाएँ बालतप है। उत्तमत्याग--दान देना,त्यागको भूमिका पर आना । शक्त्यनुसार भूखोंको भोजन, रोगी को औषधि, अज्ञाननिवृत्तिके लिए ज्ञानके साधन जुटाना और प्राणिमात्रको अभय देना । समाज और देशके निर्माणके लिए तन धन आदि साधनोंका त्याग । लाभ पूजा नाम आदि के लिए किया जानेवाला दान उत्तम दान नहीं है । उत्तम आकिञ्चन्य-अकिञ्चनभाव, बाह्यपदार्थोंमें ममत्व भावका त्याग । धन धान्य आदि बाह्यपरिग्रह तथा शरीरमें 'यह मेरा स्वरूप नहीं है, आत्माका धनतो उसका शुद्ध चैतन्यरूप हैं' 'नास्ति में किञ्चन'मेरा कुछ नहीं है आदि भावनाएं आकिञ्चन्य हैं । कर्तव्यनिष्ठ रहकर भौतिकतासे दृष्टि हटाकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त करना । उत्तम ब्रह्मचर्य-ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमें विचरण करना । स्त्रीसुखसे विरक्त होकर समस्त शारीरिक मानसिक आत्मिक शक्तियोंको आत्मविकासोन्मुख करना । मनःशुद्धिके बिना केवल शारीरिक ब्रह्मचर्य न तो शरीरको ही लाभ पहुंचाता है और न मन और आत्मामें ही पवित्रता लाता है ।।
___अनुप्रेक्षा-सद्भावनाएँ आत्मविचार । जगत्में प्रत्येक पदार्थ क्षणभंगुर है, स्त्री पुत्र आदि पर पदार्थ स्वभावतः अनित्य हैं अतः इनके विछुड़नेपर क्लेश नहीं होना चाहिए । संसारमें मृत्युमुखसे बचानेवाला कोई नहीं।' बड़े बड़े सम्राट् और साधनसम्पन्न व्यक्तियोंको आयुकी परिसमाप्ति होते ही इस नश्वर शरीरको छोड़ देना होता है । अत: इस ध्रुवमृत्युसे घबड़ाना नहीं चाहिए । इस जगत्में कोई किसीको शरण नहीं है । इस संसारमें यह जीवनाना योनियों में परिभ्रमण करते हुए भी आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं करनेके कारण अनेक दुर्वासनाओंसे वासित रहकर रागद्वेष आदि द्वन्द्वमें उलझा रहा । मैं अकेला हूँ, मैं स्वयं एक स्वतंत्र हूँ। स्त्री पुत्र धन धान्य मकान यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं है, हमारे स्वरूपसे जुदा है । यह शरीर मांस रुधिर आदि सात धातूओंसे बना हआ है । इसम नव द्वारोंसे मल बहता रहता है। इसकी सेवा करते करते जीवन बीत गया । यह जब तक है तब तक अपना और जगत्का जो उपकार हो सकता हो, कर लेना चाहिये । जितने । रागादि भाव और वासनाएँ हैं उनसे फिर दुर्भावोंकी सृष्टि होती है कर्मोका आस्रव होता है, और उससे आत्माको बन्धनमें पड़ना पड़ता है। अत: इन रागद्वेष आदि कषायोंको छोड़ देना चाहिए। सद्विचार अहिंसकवृत्ति, समताभाव आदि आध्यात्मिक वृत्तियोंसे रागादि कषायोंका शमन होता है, आगे होनेवाले कुभाव रोके जा सकते हैं, सद्विचारोंकी सृष्टि की जा सकती है, पुराने दुविचारोंसे और खोटी आदतोंसे धीरे धीरे उद्धार हो सकता है। यह अनन्तलोक अनन्त विचित्रताओंसे भरा है। इसमें लिप्त होना मूर्खता है । व्यक्तिका उद्धार ही मुख्य है । लोकके प्राकृतिक रूपका तटस्थ भावसे चिन्तन करनेसे रागादि वत्तियाँ अपने आप संकुचित होने लगती हैं। साक्षी बनने में जो आनन्द है वह लिप्त होने में नहीं। संसारमें सब पदार्थ सुलभ है, बूढ़ेसे जवान बनने के साधन भी विज्ञानने उपस्थित कर दिये हैं, पर बोधि अर्थात सम्यग्ज्ञान-तत्वनिर्णय होना कठिन है। जिससे आत्मा शान्ति और निराकुलताका लाभ करे वह बोधि अत्यंत दुर्लभ है । यह अहिंसाकी भावना, मानवमात्र के ही नहीं प्राणिमात्रके सुखकी आकांक्षा, जगत्के हितकी पुण्यभावना ही धर्म है । प्राणिमात्र, मैत्रीभाव, गुणियोंके गुणमें प्रमोदभाब, दुःखी जीवोंके दुःखमें सहानुभूति और संवेदनाके विचार तथा जिनसे हमारी चित्तवृत्तिका मेल नहीं खाता उन विपरीत पुरुषोंसे द्वेष न होकर तटस्थ भाव ही हमारी आत्माको तथा मानवसमाजको अहिंसक तथा उच्च भूमिकापर ले जा सकते हैं। ऐसी भावनाओंको सदा चित्तमें भाते रहना चाहिये । इन विचारोंसे सुसंस्कृत चित्त समय आनेपर विचलित नहीं हो सकता, सभी द्वन्द्वोंमें समताभाव रख सकता है और कर्मों के आस्रवको रोककर संवरकी ओर ले जा सकता है।
परीषहजय-साधकको भूख प्यास ठंड गरमी बरसात डांस मच्छर चलने फिरने सोने में आनेवाली कंकड़ आदि बाधाएँ, वध आक्रोश मल रोग आदिकी बाधाओंको शान्तिसे सहना चाहिए। नग्न रहते हुए भी स्त्री
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