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परम्पराका सम्यग्दर्शन पड़ता है पर उसका सूक्ष्म विष समाजशरीरमें व्याप्त होता है, जो सारे समाजको ही अज्ञातरूपसे नष्ट कर देता है । तुम तो समझ सकते हो पर तुम्हारे बच्चे तो तुम्हारे नामपर न जाने क्या क्या करते जायंगे। अत: उनकी खातिर स्वयं सम्यग्द्रष्टा बननेका स्थिर प्रयत्न करो।
परम्परा का सम्यग्दर्शन
प्राचीन नवीन या समीचीन ? मनुष्यमें प्राचीनताका मोह इतना दृढ़ है कि अच्छी से अच्छी बातको वह प्राचीनताके अस्त्रसे उड़ा देता है और बुद्धि तथा विवेकको ताकमें रख उसे 'आधुनिक' कहकर आग्राह्य बनानेका दुष्ट प्रयत्न करता है । इस मूढ़ मानवको यह पता नहीं है, कि प्राचीन होनेसे ही कोई विचार अच्छा और नवीन होनेसे ही कोई बुरा नहीं कहा जा सकता। मिथ्यात्व हमेशा प्राचीन होता है, अनादिसे आता हे और सम्यग्दर्शन नवीन होता है पर इससे मिथ्यात्व अच्छा और सम्यक्त्व बुरा नहीं हो सकता। आचार्य समन्तभद्रने धर्मदेशनाकी प्रतिज्ञा करते हुए लिखा है--"देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवहणम् ।" इसमें उनने प्राचीन या नवीन धर्मके उपदेश देनेकी बात नहीं कही है किंतु वे 'समीचीन' धर्मका उपदेश देना चाहते हैं। जो समीचीन अर्थात् सच्चा हो बुद्धि और विवेकके द्वारा सम्यक् सिद्ध हुआ हो, वही ग्राह्य है न कि प्राचीन या नवीन । प्राचीनमें भी कोई बात समीचीन हो सकती है और नवीनमें भी कोई बात समीचीन । दोनोंमें असमीचीन बातें भी हो सकती हैं। अतः परीक्षा कसौटीपर जो खरी समीचीन उतरे वही हमें ग्राह्य है। प्राचीनताके नामपर पीतल ग्राह्य नहीं हो सकता और नवीनताके कारण सोना त्याज्य नहीं । कसौटी रखी हुई है, जो कसनेपर समीचीन निकले वही ग्राह्य है।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने बहुत खिन्न होकर इन प्राचीनता मोहियोंको सम्बोधित करते हुए छठवीं द्वात्रिशतिकाम बहुत मार्मिक चेतावनी दी है, जो प्रत्येक संशोधकको सदा स्मरण रखने योग्य है--
यशिक्षितपण्डितो जनो विदुषामिच्छति वक्तुमग्रतः ।
न च तरक्षणमेव शोर्यते जगतः किं प्रभवन्ति देवताः। समीक्षक विद्वानोंके सामने प्राचीनरूढ़िवादी बिना पढ़ा पंडितम्मन्य जब अंटसंट बोलनेका साहस करता है, वह तभी क्यों नहीं भस्म हो जाता? क्या दुनिया कोई न्याय-अन्यायको देखनेवाले देवता नहीं है ?
पुरातनर्या नियता व्यवस्थितिस्तथैव सा कि परिचिन्त्य सेत्स्यति ।
तथेति वक्तु मृतरू ढगौरदादहं न जातः प्रथयन्तु विद्विषः॥ पुराने पुरुषोंने जो व्यवस्था निश्चित की है वह विचारनेपर क्या वैसी ही सिद्ध हो सकती है ? यदि समीचीन सिद्ध हो तो हम उसे समीचीनताके नामपर मान सकते है, प्राचीनताके नामपर नहीं। यदि वह समीचीन सिद्ध नहीं होती तो मरे हुए पुरुषोंके झूठे गौरवके कारण 'तथा' हाँ में हाँ मिलानेके लिए मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ। मेरी इस समीचीनप्रियताके कारण यदि विरोधी बढ़ते हैं तो बढ़े। श्रद्धावश कवरपर फूल तो चढ़ाये जा सकते हैं पर उनकी हर एक बातका अन्धानुसरण नहीं किया जा सकता।
बहुप्रकाराः स्थितयः परस्परं विरोधयुक्ताः कथमाशु निश्चयः।
विशेषसिद्धावियमेव नेति वा पुरातनप्रेमजडस्य युज्यते ॥ पुरानी परम्पराएं बहुत प्रकारकी है, उनमें परस्पर पूर्व-पश्चिम जैसा विरोध भी है। अतः विना विचारे प्राचीनताके नामपर चटसे निर्णय नहीं दिया जा सकता। किसी कार्यविशेषकी सिद्धिके लिए 'यही व्यवस्था है, अन्य नहीं' 'यही पुरानी आम्नाय है' आदि जड़ताकी बातें पुरातनप्रेमी जड़ ही कह सकते है।
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