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सम्यग्दर्शन का सम्यग्दर्शन
प्रत्येक द्रव्य अपना अपना स्वामी है।" इस परम व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी उद्घोषणा जैन तत्त्वज्ञानियोंने अत्यंत निर्भयतासे की है । और इसके पीछे हजारों राजकुमार राजपाट छोड़कर इस व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी उपासनामें लगते आए हैं। यही सम्यग्दर्शनकी ज्योति है।
प्रत्येक आत्मा अपनी तरह जगत् में विद्यमान अनन्त आत्माओंका भी यदि समान-आत्माधिकार स्वीकार कर ले और अचेतन द्रव्योंके संग्रह या परिग्रहको पाप और अनाधिकार चेष्टा मान ले तो जगत्में युद्ध संघर्ष हिंसा द्वेष आदि क्यों हों ? आत्माके स्वरूपच्युत होनेका मुख्य कारण है, परसंग्रहाभिलाषा और परपरिग्रहेच्छा । प्रत्येक मिथ्यादर्शी आत्मा यह चाहता है कि संसारके समस्त जीवधारी उसके इशारेपर चलें, उसके अधीन रहें, उसकी उच्चता स्वीकार करें। इसी व्यक्तिगत अनधिकार चेष्टाके फलस्वरूप जगत्में जाति वर्ण रंग आदिप्रयुक्त वैषम्यकी सष्टि हुई है । एक जातिमें उच्चत्वका अभिमान होनेपर उसने दूसरी जातियोंको नीचा रखनेका प्रयत्न किया। मानवजातिके काफी बड़े भागको अस्पृश्य घोषित किया गया । गोरेरंगवालोंकी शासक जाति बनी। इस तरह जाति वर्ण और रंगके आधारसे गुट बने और इन गिरोहोंने अपने वर्गको उच्चता और लिप्साकी पुष्टिकेलिए दूसरे मनुष्योंपर अवर्णनीय अत्याचार किए। स्वीमात्र भोगकी वस्तु रही । स्त्री और शद्रका दर्जा अत्यन्त पतित समझा गया। जैन तीर्थंकरोंने इस अनधिकार चेष्टाको मिथ्यादर्शन कहा और बताया कि इस अनधिकार चेष्टाको समाप्त किये बिना सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हो सकती । अतः मुलतः सम्यग्दर्शन-आत्मस्वरूपदर्शन और आत्माधिकारके ज्ञानमें ही परिसमाप्त है । शास्त्रोंमें इसका ही स्वानुभव, स्वानुभूति, स्वरूपानुभव जैसे शब्दोंसे वर्णन किया गया है । जैन परम्परामें सम्यक् दर्शनके विविधरूप पाए जाते हैं (१)तत्त्वार्थश्रद्धान (२)जिनदेव शास्त्र गुरुका श्रद्धान (३) आत्मा और परका भेदज्ञान आदि ।
जैनदेव, जनशास्त्र और जैनगुरुकी श्रद्धाके पीछे भी वही आत्मसमानाधिकारकी बात है। जैनदेव परम वीतरागताके प्रतीक है। उस वीतरागता और आत्ममात्रत्वके प्रति सम्पूर्ण निष्ठा रखे बिना शास्त्र
और गुरुभक्ति भी अधूरी है। अत: जैनदेव शास्त्र और गुरुकी श्रद्धा का वास्तविक अर्थ किसी व्यक्तिविशेषकी श्रद्धा न होकर उन गुणोंके प्रति अटूट श्रद्धा है जिन गुणोंके वे प्रतीक है।
आत्मा और पदार्थोंका विवेकज्ञान भी उसी आत्मदर्शनकी ओर इशारा करता है। इसीतरह नत्त्वार्थश्रद्धानमें उन्हीं आत्मा, आत्माको बन्ध करने वाले और आत्माकी मुक्ति में कारणभूत तत्त्वोंकी श्रद्धा ही अपेक्षित है । इस विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन आत्मस्वरूपदर्शन और आत्माधिकारका परिज्ञान तथा उसके प्रति अट्ट जीवत श्रद्धारूप ही है । सम्यग्द्रष्टाके जीवनमें परिग्रहसंग्रह और हिसाका कोई स्थान नहीं रह सकता। वह तो मात्र अपनी आत्मापर ही अपना अधिकार समझकर जितनी दुसरी आत्माओंको या अन्य जडद्रव्योंको अधीन करने की चेष्टाएँ हैं उन सभीको अधर्मही मानता है । इस तरह यदि प्रत्येक मानवको यह आत्मस्वरूप और आत्माधिकारका परिज्ञान हो जाय और वह जीवनमें इसके प्रति निष्ठावान हो जाय तो संसारमें परम शान्ति और सहयोगका साम्राज्य स्थापित हो सकता है ।
सम्यग्दर्शनके इस अन्तरस्वरूपकी जगह आज बाहरी पूजा-पाठने ले ली है । अमुक पद्धतिसे पूजन और अमुक प्रकारकी द्रव्यसे पूजा आज सम्यक्त्व समझी जाती है । जो महावीर और पद्मप्रभु वीतरागता के प्रतीक थे आज उनकी पूजा व्यापारलाभ, पुत्रप्राप्ति, भूतबाधाशान्ति जैसी क्षुद्र कामनाओंकी पूर्तिके लिए ही की जाने लगी है । इतना ही नहीं इन तीर्थंकरोंका 'सच्चा दरबार' कहलाता है। इनके मन्दिरोंमें शासनदेवता स्थापित हुए हैं और उनकी पूजा और भक्तिने ही मुख्य स्थान प्राप्त कर लिया है। और यह सब हो रहा है सम्यग्दर्शनके पवित्र नामपर।
जिस सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न चाण्डालको स्वामी समन्तभद्रने देवके समान बताया उसी सम्यग्दर्शनकी ओटमें और शास्त्रोंकी ओट में जातिगत उच्चत्व नीचत्वके भावका प्रचार किया जा रहा है। जिस दाद्यपदार्थाश्रित या शरीराश्रित भावोंके विनाशकेलिए आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शनका उपदेश दिया गया
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