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सम्यग्दर्शन का सम्यग्दर्शन
होता है अर्थात् वैराग्यसे तत्त्वज्ञान परिपूर्ण होता है और फिर मुक्ति । जैन तीर्थंकरोंने “सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग:' (तत्त्वार्थसूत्र १११) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको मोक्षका मार्ग कहा है। ऐसा सम्यग्ज्ञान जो सम्यक्चारित्रका पोषक या वर्द्धक नहीं है मोक्षका साधन नहीं हो सकता। जो ज्ञान जीवनमें उतरकर आत्मशोधन करे वही मोक्षका कारण है । अन्ततः सच्ची श्रद्धा और ज्ञानका फल चारित्रशुद्धि है । ज्ञान थोड़ा भी हो पर यदि उसने जीवनशुद्धि में प्रेरणा दी है तो वह सम्यग्ज्ञान है। अहिसा संयम और तप साधनात्मक वस्तुएँ है ज्ञानात्मक नहीं। अत: जैनसंस्कृतिने कोरे ज्ञानको भार ही बताया है। तत्त्वोंकी सच्ची श्रद्धा खासकर धर्मकी श्रद्धा मोक्ष-प्रासादका प्रथम सोपान है। आत्मधर्म अर्थात आत्मस्वभावका और आत्मा तथा शरीरादि परपदार्थोंका स्वरूपज्ञान होना-इनमें भेदविज्ञान होना ही सम्यादर्शन है । सम्यक्दर्शन अर्थात् आत्मस्वरूपका स्पष्ट दर्शन, अपने लक्ष्य और कल्याण-मार्गकी दृढ़ प्रतीति । भय आशा स्नेह और लोभादि किसी भी कारण से जो श्रद्धा चल और मलिन न हो सके, कोई साथ दे या न दे पर भीतरसे जिसके प्रति जीवनकी भी बाजी लगानेवाला परमावगाढ़ संकल्प हो वह जीवन्त श्रद्धा सम्यकदर्शन है। इस ज्योतिके जगते ही साधकको अपने तत्त्वका स्पष्ट दर्शन होने लगता है। उसे स्वानुभति-अर्थात् आत्मानुभव प्रतिक्षण होता है । वह समझता है कि धर्म आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें है, बाह्य पदार्थाश्रित क्रियाकाण्डमें नहीं। इसीलिए उसकी परिणति एक विलक्षण प्रकारकी हो जाती है । उसे आत्मकल्याण, मानवजातिका कल्याण, देश और समाजके कल्याणके मार्गका स्पष्ट भान हो जाता है। अपने आत्मासे भिन्न किसी भी परपदार्थकी अपेक्षा ही दुखका कारण है । सुख स्वाधीन वृत्तिमें है। अहिंसा भी अन्ततः यही है कि हमारा परपदार्थसे स्वार्थसाधनका भाव कम हो । जैसे स्वयं जीवित रहने की इच्छा है उसी तरह प्राणिमात्रका भी जीवित रहनका अधिकार स्वीकार करें ।
स्वरूपज्ञान और स्वाधिकार मर्यादाका ज्ञान सम्यग्ज्ञाने है। उसके प्रति दृढ़ श्रद्धा सम्यग्दर्शन है और तद्रूप होनेके यावत् प्रयत्न सम्यक्चारित्र है। यथा--प्रत्येक आत्मा चैतन्यका धनी है। प्रतिक्षण पर्याय बदलते हुए भी उसकी अविच्छिन्न धारा अनन्तकालतक चलती रहेगी। उसका कभी समूल नाश न होगा। एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर कोई अधिकार नहीं है। रागादि कषायें और वासनाएँ आत्माका निजरूप नहीं है, विकारभाव है। शरीर भी पर है। हमारा स्वरूप तो चैतन्यमात्र है। हमारा अधिकार अपनी गणपर्यायों पर है। अपने विचार और अपनी क्रियाओंको हम जैसा चाहें वैसा बना स हैं। दूसरेको बनाना बिगाड़ना हमारा स्वाभाविक अधिकार नहीं है। यह अवश्य है कि दूसरा हमारे वनने बिगड़नेमें निमित्त होता है पर निमित्त उपादानकी योग्यताका ही विकास करता है । यदि उपादान कमजोर है तो निमित्तके द्वारा अत्यधिक प्रभावित हो सकता। अतः बनना बिगड़ना बहुत कुछ अपनी भीतरी योग्यतापर ही निर्भर है। इसतरह अपने आत्माके स्वरूप और स्वाधिकारपर अटल श्रद्धा होना और आचार व्यवहारमें इसका उल्लंघन न करनेकी दृढ़ प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है ।
सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन-- सम्यग्दर्शनका अर्थ मात्र यथार्थ देखना या वास्तविक पहिचान ही नहीं है, किंतु उस दर्शनके पीछे होनेवाली दृढ़ प्रतीति, जीवन्त श्रद्धा और उसको कायम रखनेकेलिए प्राणोंकी भी बाजी लगा देनेका अट विश्वास ही वस्तुतः सम्यग्दर्शनका स्वरूपार्थ है।
सम्यग्दर्शनमें दो शब्द हैं सम्यक् और दर्शन । सम्यक् शब्द सापेक्ष है, उसमें विवाद हो सकता है। एक मत जिसे सम्यक् समझता है दूसरा मत उसे सम्यक् नहीं मानकर मिथ्या मानता है। एक ही वस्तु परिस्थिति विशेषमें एक को सम्यक् और दूसरेको मिथ्या हो सकती है । दर्शनका अर्थ देखना या निश्चय करना है। इसमें भी भ्रान्तिको सम्भावना है । सभी मत अपने अपने धर्मको दर्शन अर्थात् सासाक्षात्कार किया हुआ बताते हैं, अतः कौन सम्यक् और कौन असम्यक् तथा कौन दर्शन और कौन अदर्शन
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